सेहत पर भारी अवसाद का शिकंजा

Reference: http://www.thehindu.com/opinion/op-ed/basic-income-and-mental-health-gains/article17356686.ece

आज विश्व में अवसाद एक बहुत बड़ी समस्या का रूप लेता जा रहा है। अवसाद के चलते जिस तेजी से मनोरोगियों की तादाद में बढ़ोतरी हो रही है, उसे देखते हुए इस सदी को मनोरोगियों की सदी कहा जाने लगा है।

  • विश्व स्वास्थ्य संगठन की चेतावनी अब सही साबित हो चुकी है और अब भारत में अवसाद सबसे बड़ी बीमारी बन चुकी है।
  • आज देश की आबादी का करीब छह से सात प्रतिशत हिस्सा सामान्य मानसिक बीमारियों से ग्रस्त है जबकि एक से दो प्रतिशत गंभीर मानसिक बीमारियों से ग्रस्त हैं। इससे चिंतित समाज विज्ञानी, मनोविज्ञानी और मनोचिकित्सक हैरत में हैं।
  • इस बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि यह भीषण त्रासदी सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या है।
  • मनोवैज्ञानिकों ने तो इस तथ्य का खुलासा किया है कि विश्व में सबसे बड़ी आबादी वाले देश चीन की कुल आबादी में से बीस फीसदी से ज्यादा आज मनोवैज्ञानिक समस्याओं से ग्रस्त हैं।
  •  भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद का अध्ययन इस बात का खुलासा करता है कि प्राकृतिक आपदाओं एवं दुर्घटनाओं के बाद उन आपदाओं से प्रभावित लोगों में से 90 फीसदी अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं और इनमें से 30 फीसदी लोगों में यह समस्या ऐसे हादसों के छह महीने बाद तक बनी रहती है।

Reason for this:

असलियत में इसके बढ़ने के पीछे बदलते समाज में खुद को न संभाल पाना और भौतिक संसाधनों की दौड़ में भागते जाना प्रमुख है। भारतीय मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि तेजी से बढ़ता शहरीकरण अनगिनत मनोवैज्ञानिक समस्याओं की जड़ है, जिसमें अवसाद प्रमुख है। सवाल है कि क्या बढ़ते अवसाद का इलाज नहीं है? इस बारे में मनोचिकित्सकों का कहना है कि इसका इलाज भी है और इसके लिए बाजार में दवाओं की भी कमी नहीं है। हकीकत यह है कि इन दवाओं के आदी होने से आत्महत्या की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है।

आज उपभोक्तावादी संस्कृति की आगोश में लिपटे युवक-युवतियों में ज्यादा से ज्यादा पाने, वस्तुओं के उपभोग की ललक, उनसे उपजी कुंठा, तनाव, एड्स, कैंसर, न्यूरोलॉजिकल रोग, जिसे क्रॉनिक इलनेस सिंड्रोम कहते हैं, अवसाद बढ़ाने में अहम भूमिका निभाते हैं। सरकार भले कुछ भी कहे लेकिन इतना तय है कि देश में स्वास्थ्य कर्मियों की मानसिकता, स्वास्थ्य सेवाओं व चिकित्सकों के अभाव में समस्या बढ़ी है। इंटरनेट के चलन, जिसे दीवानगी कहना ज्यादा उचित होगा, से गुस्सा, निराशा व तनाव बढ़ा है, जिसके चलते अवसाद से मनोरोगियों की संख्या बढ़ी है। ऐसे में समस्या पर लगाम लग पाने की आशा करना बेमानी है।

Some symptoms

  • अवसादरोधी दवाएं लेने वालों में आत्मघाती प्रवृत्ति दोगुनी पायी जाती है।
  • अमेरिकी खाद्य व औषधि प्रशासन ने इस तथ्य को प्रमाणित भी किया है कि अवसाद की दवा लेने वाले 100 में से तीन में आत्महत्या की प्रवृत्ति पायी गयी। नतीजतन अमेरिका के एडवायजरी पैनल ने अवसाद की दवाओं को ‘ब्लैक बॉक्स’ की श्रेणी में रखने की चेतावनी दी है।
  • वहीं अमेरिकी साइकियाट्रिक एसोसिएशन ने तो इस पर तुरंत कार्रवाई की मांग की है

Genderisation of Mentle Health:

  • विशेषज्ञों का मानना है कि भारत के मुकाबले अन्य देशों में अवसाद के रोगियों में महिलाओं से ज्यादा तादाद पुरुषों की है।
  • यूनिवर्सिटी ऑफ सिडनी के ब्रेन एंड माइंड रिसर्च इंस्टीट्यूट के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर प्रो. इयान हिकी ने खुलासा किया है कि पुरुष अकसर इस समस्या के बारे में ज्यादातर छिपाते हैं और वे डाक्टर से भी कम परामर्श लेते हैं। इन हालातों में वह शराब, सिगरेट आदि अन्य नशे के आदी हो जाते हैं। महिलाएं भी शराब, दवाएं और सिगरेट का सहारा लेती हैं, लेकिन वे इलाज शुरू कराने को तत्पर रहती हैं।

दरअसल तनावपूर्ण जीवन और जीवन के हर क्षेत्र में चल रही भीषण प्रतियोगिता में अपना स्थान न होने के कारण आज अवसाद के रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है।

प्रख्यात मनोचिकित्सक डाक्टर हवाई एक्जियाओंपिंग के अनुसार आत्महत्याओं की बढ़ती घटनाओं के पीछे मुख्य कारण अवसाद है। जो तेजी से बदलते समाज में मस्तिष्क के ऊपर पड़ने वाले अत्यधिक दबाव का नतीजा है। मनोचिकित्सक डॉ. राजेश सागर के अनुसार इसका उन पर बुरा असर पड़ता है, उनकी भूख कम हो जाती है, उन्हें भय का फोबिया हो जाता है। नींद नहीं आती, वह दूसरे पर शक करने लग जाता है और कुछ दिन बाद उसे दीवार पर टंगे चित्रों के सजीव होने का भ्रम होने लगता है। वे इफेक्टिव डिस आर्डर, सीजोफ्रेनिया, आर्गेनिक साइकोसिस और न्यूरोसेस बीमारियों के शिकार होकर मनोरोगी हो जाते हैं। कालांतर वे आत्महत्या तक को प्रवृत्त हो जाते हैं।

 

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