नगालैंड में स्थानीय निकायों के चुनाव में भड़की हिंसा संविधान में आदिवासी इलाकों को दी गई स्वायतत्ता और समाज सुधार के सरकारी प्रयास के बीच द्वंद्व है। इसलिए इस मुद्दे को महज राजनीतिक कहकर नहीं टाल सकते।
- Nagaland में महिलाएं लंबे समय से स्थानीय निकायों में आरक्षण की मांग कर रही हैं। अब जब दिसंबर 2016 में सरकार ने महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने का निर्णय लिया तो आदिवासी समाज का पारम्परिक संगठन भड़क उठा।
- उसका कहना है कि अनुच्छेद 234 (टी) के तहत दिया गया यह आरक्षण पूर्वोत्तर के आदिवासी क्षेत्र नगालैंड को संविधान के अनुच्छेद 371 (ए) के तहत दिए गए विशेषाधिकार का उल्लंघन है।
- पूर्वोत्तर के ये इलाके संविधान की पांचवी अनुसूची में आते हैं जहां पर राज्यपाल की मंजूरी के बिना केंद्र और राज्य सरकार का कोई कानून लागू नहीं किया जा सकता। इसके अलावा 371 (ए) आदिवासियों को अपनी परम्परा और रीति-रिवाज की हिफाजत का भी अधिकार देता है।
A political or social conundrum
- अब उनके कौन से अधिकार पारम्परिक हैं और कौन से रीति-रिवाज पुराने हैं, इसका फैसला वहां रह रही 18 आदिवासी जातियों के संगठन मिल-जुलकर करते हैं।
- सरकार का मत है की स्थानीय निकायों का गठन आधुनिक है, इसलिए उन्हें आदिवासियों की परम्परा और प्रथा के दायरे में नहीं ला सकते।
- लेकिन नगालैंड के पारम्परिक आदिवासी संगठन को यह आरक्षण स्वीकार नहीं है और इसके विरोध में उन्होंने कोहिमा में नगर पालिका का दफ्तर फूंका और मुख्यमंत्री आवास पर भी हमला किया।
इस समय पूर्वोत्तर का आदिवासी समाज ही नहीं भारत के अन्य समाज भी अजीब से द्वंद्व में उलझे हुए हैं। एक तरफ उनकी महिलाएं अपना अधिकार मांग रही हैं तो दूसरी तरफ उनकी जातीय पंचायतें अपने पारम्परिक हक के नाम पर उन्हें वह देने से इनकार कर रही हैं। हमारा संविधान विशेषाधिकार और सामाजिक क्रांति के बीच उलझ गया है। उससे एक समझदारी भरा रास्ता निकालने के लिए गहरे राजनीतिक विवेक की जरूरत है और शायद उसे दर्शाने में राजनेता नाकाम रहे हैं। यही वजह है कि आज नगालैंड जल रहा है।
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