#Business_Standard Editorial
Trade Unions in India
इस समय देश में करीब 20,000 मजदूर संगठन ट्रेड यूनियन ऐक्ट ऑफ 1926 के अधीन पंजीकृत हैं। हालांकि इस सूची को अद्यतन किए जाने की आवश्यकता है। देश के तमाम हिस्सों में बिखरे पड़े ये छोटे मजदूर संगठन देश के पांच प्रमुख केंद्रीय मजदूर संगठनों से जुड़े हुए हैं।
- इंडियन नैशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस (इंटक) के 3.3 करोड़ सदस्य हैं और यह कांग्रेस से संबद्घ है।
- भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) के 1.7 करोड़ सदस्य हैं और यह भाजपा से संबद्घ है।
- आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) के 1.4 करोड़ सदस्य हैं और यह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य है।
- हिंद मजदूर संघ एक स्वतंत्र संगठन है जिसके 90 लाख सदस्य हैं।
- सेंटर ऑप्ऊ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) के 57 लाख सदस्य हैं और यह माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से संबंधित है।
इन संगठनों के दावों पर यकीन करें तो इनके कुल सदस्यों में से तकरीबन 90 फीसदी संगठित क्षेत्र से आते हैं जबकि 20 फीसदी असंगठित क्षेत्र से। देश के समस्त कामगारों की गिनती करें तो यह आंकड़ा करीब 50 करोड़ है। ऐसे में कहा जा सकता है कि ये आंकड़े बहुत बढ़ाचढ़ाकर नहीं पेश किए गए हैं। देश के समस्त श्रमिकों के प्रतिनिधित्व में उनकी हिस्सेदारी 15 फीसदी की है। यानी हर चार में से एक श्रमिक का प्रतिनिधित्व ये संगठन करते हैं।
- भारत की प्रति व्यक्ति आय क्रय शक्ति क्षमता के अनुसार भी विकसित देशों की सर्वोच्च आय के दशमांश के बराबर ही है। देश की श्रम शक्ति में असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की हिस्सेदारी 90 फीसदी है और उनको पूरी सामाजिक सुरक्षा तक हासिल नहीं है।
- सन 1974 की रेलवे हड़ताल और सन 1982 की मुंबई कपड़ा क्षेत्र की हड़ताल को संगठित क्षेत्र के मजदूरों और मालिकों के बीच शह और मात का लंबा उदाहरण माना जाता है। संगठित क्षेत्र के मजदूर अन्यथा बेहतर स्थिति में होते हैं और उनकी हड़ताल ने ये सवाल उठाए कि क्या मजदूर संगठनों की ऐसी सक्रियता देश हित में है या नहीं?
Situation in West
- पश्चिमी देशों में इन संगठनों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक महत्ता सन 1980 के दशक से तेजी से कम हुई है। उदाहरण के लिए यूनाइटेड किंगडम की प्रधानमंत्री रही मार्गरेट थैचर सन 1983 में कोयला खननकर्मियों का सफल मुकाबला करने में कामयाब रहीं। थैचर की कंजरवेटिव पार्टी ने हड़ताल को कानूनन कठिन बनाकर इन संगठनों को कमजोर कर दिया। टोनी ब्लेयर की सरकार ने भी थैचर के इन निर्णयों में कोई बदलाव नहीं किया। यूनाइटेड किंगडम में इन संगठनों की सदस्यता सन 1979 के 13 करोड़ से घटकर वर्ष 2013 में 60 लाख तक आ गई। अमेरिका में अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर ऐंड कांग्रेस ऑफ इंडस्ट्रियल ऑर्गनाइजेशन (एफएल-सीआईओ) मजदूर संगठनों का सबसे बड़ा संगठन है। एएफएल-सीआईओ की सदस्यता भी वर्ष 1983 के 1.77 करोड़ से घटकर वर्ष 2013 में 1.45 करोड़ रह गई। सन 1983 में अमेरिका में किसी संगठन में औसतन 20 फीसदी सदस्य थे जो अब 10 फीसदी रह गए हैं। सन 2013 में फ्रांस में यह सदस्यता 7 प्रतिशत, जर्मनी में 18 प्रतिशत और कनाडा में 27 प्रतिशत थी।
- पश्चिमी देशों खासतौर पर पश्चिमी यूरोप में मजदूर संगठन खासे सफल रहे। वे सरकारों को शिक्षा, न्यूनतम मेहनताना, सुरक्षित कार्य परिस्थितियों, बेरोजगारी और स्वास्थ्य भत्ता और पेंशन आदि का लाभ दिलाने में सफल रहे। इससे श्रमिकों के बीच इन संगठनों की जरूरत भी कम होती गई। बहरहाल ब्रेक्सिट वोट और अमेरिका में टं्रप की जीत यह बताती है कि दोनों देशों के कामगार अत्यधिक खिन्न हैं। क्या दुनिया भर में बढ़ती आय और संपत्ति की असमानता ने उनको खिन्न और निराश किया है?
Inidian Scenario
सन 1980 के दशक तक भारतीय मजदूर संगठनों के नेता रोजगार की परिस्थितियों और राजनीतिक-आर्थिक मुद्दों पर जो नजरिया रखते थे वह काफी हद तक मीडिया में नजर आता था। सन 1990 के दशक से इन संगठनों की मोलतोल करने की क्षमता और राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दों पर राय रखने की उनकी क्षमता में लगातार गिरावट आती गई। अब अगर इन मुद्दों पर उनकी कोई राय सामने नहीं आ रही है तो इसकी वजह शायद यह है कि उनके पास राष्ट्रव्यापी समझ वाला नेतृत्त्व नहीं है और न ही उनके नेता अपना नजरिया विश्वासपूर्वक देश के सामने रख पा रहे हैं। एक अन्य वजह यह भी हो सकती है कि वे राजनीतिक दलों से जुड़े हुए हैं इसलिए उनमें स्वतंत्र विचारशक्ति लगभग समाप्त हो चली है।
Need to mould to fight for unorganised sector
- इन प्रमुख मजदूर संगठनों में नेतृत्व का मसला तभी हल होगा जब वे अपने आपको असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए प्रासंगिक बना सकें।
- कामगारों को भी ऐसे प्रतिबद्घ नेताओं की आवश्यकता है जो उनके लिए जीवन परिस्थितियों को सही बना सकें और उनके अधिकारों के लिए लड़ सकें।
आज से 10 साल पहले इन श्रमिकों को शामिल करना मुश्किल हो सकता था लेकिन अब 90 करोड़ आधार कार्ड बन जाने के बाद आसानी से ऐसा किया जा सकता है। अगर ऐसा किया जा सका तो इन संगठनों को अपने सदस्य जोडऩे में मदद मिलेगी और वे असंगठित मजदूरों को भी सदस्य बना सकेंगे। यह बात इन संगठनों के नेताओं और उन राजनीतिक दलों के नेताओं के लिए भी उल्लेखनीय होगी जिनसे वे संबद्घता रखते हैं। इनकी मदद से वे न केवल दबाव बना सकते हैं बल्कि तत्काल किसी बात पर प्रतिपुष्टिï भी हासिल कर सकते हैं। यह बात इन मजदूरों को सरकार या प्रबंधन के साथ बातचीत में मजबूत बनाएगी।