मुस्लिम पर्सनल लॉ : नैसर्गिक न्याय की पक्षधरता

#संपादकीय :- द ट्रिब्यून 

What is the issue

मुस्लिम समाज में एक ही समय में तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कह कर पत्नी का त्याग करने के रिवाज के खिलाफ मुस्लिम महिलाओं का स्वर निरंतर मुखर हो रहा है। मुस्लिम महिलाओं के सम्मान और अधिकारों के समर्थन में केन्द्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में दाखिल हलफनामे में मुस्लिम समाज में प्रचलित तीन तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह जैसी प्रथाओं का विरोध करके अपनी राजनीतिक इच्छा शक्ति का परिचय दे दिया है।

Debate?
- अकसर सुनने में आता है कि एक मुस्लिम व्यक्ति ने अपनी पत्नी को टेलीफोन पर या फिर स्काइप अथवा फेसबुक के माध्यम से तलाक दे दिया है। इस तरह से तलाक दिये जाने से प्रभावित मुस्लिम महिलायें चाहती हैं कि मुस्लिम पर्सनल ला (शरियत) एप्लीकेशन कानून, 1937 की धारा दो असंवैधानिक घोषित की जाये क्योंकि इससे नागरिकों के मौलिक अधिकारों से संबंधित भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 (समता); 15 (नागरिकों में भेदभाव नहीं), 21 (जीने का अधिकार) और अनुच्छेद 25 (धर्म) का हनन होता है। चूंकि देश की शीर्ष अदालत ने इस मसले पर केन्द्र सरकार से उसकी राय मांगी थी और सरकार ने मुस्लिम महिलाओं के सम्मान और अधिकारों की रक्षा के समर्थन में अपना हलफनामा दाखिल किया।

Stand of Government

- यह पहला मौका है जब केन्द्र सरकार ने इतने संवेदनशील मुद्दे पर खुलकर अपनी राय व्यक्त करते हुए तीन तलाक को भेदभाव से भरा करार दिया है। सरकार चाहती है कि संविधान में प्रदत्त समता और लैंगिक समानता के अधिकार तथा महिलाओं के सम्मान और उनकी गरिमा की रक्षा के लिये मुस्लिम समाज में इस तरह के प्रचलन पर नये सिरे से विचार होना चाहिए। सरकार ने इसके पक्ष में दुनिया के तमाम इस्लामिक देशों और अंतर्राष्ट्रीय नियमों का हवाला दिया है जिनमें ट्रिपल तलाक जैसे चलन के लिये कोई स्थान नहीं है। केन्द्र सरकार के इस रुख से भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन उत्साहित है लेकिन आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सरीखे कुछ मुस्लिम संगठन इस मसले पर सरकार की मंशा पर सवाल उठा रहे हैं।

AIMPLB Objection

  • दूसरी ओर, मुस्लिम महिलाओं द्वारा अपने अधिकारों की रक्षा के लिये सतत संघर्ष और इसके लिये उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाये जाने पर आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सहित कुछ संगठनों ने आपत्ति की है। आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड और जमीयत-ए-उलेमा ने तीन बार तलाक देने की रवायत का बचाव करते हुए दलील दी है कि यह कुरान से निर्देशित पर्सनल लॉ का हिस्सा है और इसकी न्यायिक समीक्षा नहीं हो सकती।
  • मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तो एक मुस्लिम व्यक्ति द्वारा चार बीवियां रखने को भी जायज ठहराते हुए दावा किया है कि यह अवैध यौन संबंधों पर अंकुश लगाने और महिलाओं को संरक्षण प्रदान करने के लिये जरूरी है।
  • मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के इस रुख के खिलाफ महिला पर्सनल लॉ बोर्ड भी न्यायालय जाने के लिये कमर कस रहा है। उसका मत है कि शरियत में महिलाओं तथा पुरुषों को समान अधिकार दिये गये हैं।

Is this debate about equality

  • सवाल यह है कि क्या भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष और समतावादी देश में, जहां महिलाओं को समान अधिकार देने की वकालत होती है, मुस्लिम महिलाओं को इस तरह की स्थिति से क्यों गुजरना पड़ रहा है।
  • मुस्लिम समाज का एक वर्ग क्यों आज भी महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित रखने का प्रयास करता है जबकि पाकिस्तान सहित कई इस्लामिक देशों में प्राचीन व्यवस्थाओं में व्यापक बदलाव किया जा चुका है।

Earlier judgement

  • तीन तलाक को लेकर छिड़े विवाद के बीच यह ध्यान रखना होगा कि यदि 1985 में बहुचर्चित शाहबानो प्रकरण में शीर्ष अदालत के फैसले को तत्कालीन सरकार ने मुस्लिम समाज के एक वर्ग के दबाव में बदलने का निर्णय नहीं किया होता और संसद ने एक नया कानून नहीं बनाया होता तो शायद आज यह स्थिति उत्पन्न ही नहीं होती। मुस्लिम महिलायें और उनके संगठन चाहते हैं कि अब समय आ गया है कि देश की शीर्ष अदालत इस मामले में एक सुविचारित निर्णय देकर मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों और उनके सम्मान की रक्षा करे।

वर्ष 2015 में उच्चतम न्यायालय ने मुस्लिम महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव के बारे में हिन्दू उत्तराधिकार कानून से संबंधित एक प्रकरण पर विचार के दौरान संज्ञान लिया था। इस प्रकरण पर विचार होने से पहले ही पति के आचरण से परेशान उत्तराखंड की सायरा बानू और हावड़ा निवासी इशरत जहां ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाकर इसके महत्व को और भी बढ़ा दिया। इन महिलाओं का तर्क है कि जब संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रत्येक नागरिक को गरिमा और सम्मान के साथ जीवन गुजारने का अधिकार है तो फिर एक मुस्लिम महिला को तीन बार तलाक देकर उसके वैवाहिक घर में रहने के अधिकार से वंचित करके उसे घर से कैसे बेदखल किया जा सकता है?
केन्द्र सरकार के इस रुख और मुस्लिम महिलाओं के मुखर होते स्वर को देखते हुए अब सबकी नजर उच्चतम न्यायालय की ओर टिकी हुई है। देखना है कि शीर्ष अदालत मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों और उनके सम्मान की रक्षा के संदर्भ में क्या व्यवस्था देती है।

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