- अपने देश में कुछ तसवीरें कभी नहीं बदलतीं. यदि बदलती भी हैं, तो और विद्रूप होने के लिए! देश की प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की तसवीर भी ऐसी ही है.
- देश में शिक्षा की स्थिति पर इसी हफ्ते संसद में पेश सरकारी रिपोर्ट इसकी पुष्टि करती है. वर्षों की कोशिशों के बाद देश में शिक्षा का अधिकार कानून बनने के चलते आपको लग सकता है कि अब माध्यमिक स्तर तक की अनिवार्य और नि:शुल्क शिक्षा सबको सहज प्राप्त है.
ASER रिपोर्ट से कुछ तथ्य
- शिक्षा का अधिकार कानून के बाद शिक्षा की तसवीर में सकारात्मक बदलाव के कुछ आंकड़े भी सामने आ चुके हैं. मसलन, प्राथमिक शिक्षा में बच्चों के नामांकन के लिहाज से देश ने अभूतपूर्व प्रगति की है. बहुचर्चित ‘असर’ रिपोर्ट (2014) ने भी इस तथ्य को नोट किया है कि 6 से 14 साल की उम्र के बच्चों का स्कूली नामांकन अब 96 फीसदी तक पहुंच चुका है.
- यानी शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद से स्कूल से वंचित बच्चों की संख्या में भारी कमी आयी है. इस रुझान के आधार पर कहा जा सकता है कि वह दिन भी जल्द आयेगा, जब देश में कोई बच्चा स्कूल-वंचित नहीं रहेगा. लेकिन, शिक्षा असल में बच्चों के स्कूल में दाखिले भर का मामला नहीं है.
- एक बुनियादी जरूरत के रूप में शिक्षा का सवाल हमेशा उसकी गुणवत्ता से जुड़ता है और गुणवत्ता बहुत हद तक पठन-पाठन के लिए जरूरी संसाधनों, जैसे स्कूल भवन, पर्याप्त संख्या में योग्य शिक्षक, किताब, लाइब्रेरी, शौचालय, पेयजल आदि की उपलब्धता से सुनिश्चित होती है. तमाम सरकारी-गैर सरकारी रिपोर्ट और आकलन बताते रहे हैं कि अपने देश में प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता आजादी के सात दशक बाद भी बेहद निराशाजनक है.
- इसी कड़ी में संसद में पेश ताजा सरकारी रिपोर्ट में भी कहा गया है कि देश में कुल करीब 13 लाख सरकारी स्कूलों में से 1 लाख पांच हजार 630 स्कूल सिर्फ एक शिक्षक के बूते चल रहे हैं. मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में ऐसे स्कूलों की संख्या सर्वाधिक है. यह अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि अकेला शिक्षक सभी क्लास के बच्चों को सभी विषय पढ़ाने से लेकर उनके दोपहर के भोजन तक की व्यवस्था कैसे कर पाता होगा.
- यह सीधे-सीधे शिक्षा का अधिकार कानून के उस विधान का उल्लंघन है, जिसमें कहा गया है कि हर 30-35 छात्र पर एक शिक्षक का होना जरूरी है. यह तथ्य शिक्षा का अधिकार कानून के आधे-अधूरे पालन की एक बानगी भर है. कई आधिकारिक रिपोर्टों में माना जा चुका है कि देश में बड़ी संख्या में स्कूल ऐसे हैं, जहां शौचालय तक की सुविधा नहीं है, और जहां यह सुविधा है, वहां उसकी दशा उपयोग करने लायक नहीं है. यह लड़कियों के स्कूल छोड़ने का एक मुख्य कारण है. कुछ रिपोर्टों में प्रशिक्षणप्राप्त शिक्षकों की भारी कमी की बात कही जाती है, तो कुछ में स्कूल भवन की दुर्दशा या स्कूलों के वास-स्थान से बहुत दूर होने की बात.
- शिक्षा के लिए जरूरी ढांचे के अभाव का सीधा संबंध स्कूल-वंचित या पढ़ाई बीच में छोड़नेवाले बच्चों से है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय की 2013-14 की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि 39 फीसदी लड़के और 33 फीसदी लड़कियां माध्यमिक स्तर की शिक्षा पूरी किये बिना ही अपनी पढ़ाई छोड़ने के लिए बाध्य हैं.
विश्लेषण
- प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की शिक्षा के रुझानों पर नजर रखनेवाले विशेषज्ञ आगाह करते रहे हैं कि सिर्फ बच्चों का दाखिला बढ़ाने पर सारा जोर लगाना ठीक नहीं है. ‘असर’ रिपोर्ट के मुताबिक राष्ट्रीय स्तर पर ग्रामीण इलाकों में 15-16 साल की उम्र के करीब 16 फीसदी लड़के और 17 फीसदी लड़कियां अलग-अलग कारणों से स्कूल से वंचित हैं. 11 से 14 साल आयुवर्ग में भी, जिसमें शिक्षा अनिवार्य है, स्कूल-वंचित लड़कियों की संख्या कुछ राज्यों, जैसे राजस्थान और यूपी, में 10 फीसदी या उससे भी ज्यादा है.
- इस तथ्य का एक संकेत यह है कि 100 में कम-से-कम 10 बच्चे इस स्थिति में नहीं हैं कि चौथी-पांचवीं क्लास के बाद अपनी पढ़ाई जारी रख सकें. चौथी-पांचवीं के बाद अगर बच्चे बड़ी तादाद में पढ़ाई बीच में ही छोड़ रहे हैं, तो इसका एक ही मतलब है कि शिक्षा के अधिकार कानून का पालन उसकी मूल भावना के हिसाब से नहीं हो रहा है. अचरज नहीं कि अब सरकार को खुद ही संसद में इस बात को मानने पर मजबूर होना पड़ा है.
- देश गुणवत्तापूर्ण स्कूली शिक्षा के लिए जरूरी संसाधनों की कमी की बहुत बड़ी कीमत चुका रहा है. बच्चों को जरूरी स्कूली ज्ञान से वंचित रखना एक तरह से भावी नागरिक को देश की मुख्यधारा में प्रवेश से वंचित रखना है.
- सशक्त अर्थव्यवस्था और जीवंत लोकतंत्र के निर्माण के हमारे सपने और प्रयत्न पर भी यह एक कुठाराघात है. संसद में पेश सरकारी रिपोर्ट के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि देश में प्राथमिक-माध्यमिक स्तर की शिक्षा की तसवीर सुधारने के लिए कुछ बड़ी पहल की जायेगी.