पंजाब नेशनल बैंक में घोटाला सामने आने के बाद सबसे ज्यादा आलोचनाओं का शिकार हुए रिजर्व बैंक ने पहली बार चुप्पी तोड़ते हुए जो कहा है, वह काफी गंभीर और चौंकाने वाला है। आरबीआइ गवर्नर उर्जित पटेल ने सार्वजनिक रूप से यह कहा है कि घोटालों को रोकने के लिए उनके पास जो अधिकार होने चाहिए, वे नहीं हैं।
अगर सरकार ने रिजर्व बैंक के अधिकारों में कटौती न की होती तो शायद ऐसे घोटालों को अंजाम देने वालों के हौसले बुलंद नहीं हो पाते।
केंद्रीय बैंक के गवर्नर का यह कहना निश्चित रूप से एक गंभीर मामला है। इससे पता चलता है कि बैंकिंग सुधार के नाम पर सरकार किस तरह केंद्रीय बैंक को पंगु बनाते हुए वाणिज्यिक बैंकों को अपनी मुट्ठी में कर रही है
। इससे सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच गहरे और गंभीर मतभेद उजागर हुए हैं। जाहिर है, बैंकिंग क्षेत्र में सुधार और बैंकों पर नियंत्रण के लिए रिजर्व बैंक जो ठोस कदम उठाना चाहता है, वे शायद सरकार को अनुकूल प्रतीत नहीं होते।
उर्जित पटेल की बात सेजो सबसे बड़ा मुद्दा उभर कर आया है, वह सीधे-सीधे रिजर्व बैंक की स्वायत्तता से जुड़ा है। सरकार ने बैंकिंग नियमन अधिनियम में संशोधन कर एक तरह से रिजर्व बैंक को निहत्था बना दिया है। बैंकिंग क्षेत्र के बारे में बड़े फैसले करने के अधिकार सरकार ने अपने पास ले लिए। ऐसे में अब केंद्रीय बैंक की हैसियत शायद इतनी भी नहीं रह गई है कि वह बड़े-बड़े घोटालों के बाद किसी की जवाबदेही तय कर सके, किसी सरकारी बैंक के निदेशक मंडल को हटा सके या किसी बैंक का लाइसेंस रद्द कर सके। अरबों-खरबों के घोटाले सामने आने के बाद अगर केंद्रीय बैंक किसी की जवाबदेही भी तय नहीं कर सके तो फिर आखिर उसकी भूमिका क्या रह गई है, यह गंभीर सवाल है। रिजर्व बैंक अब क्या सिर्फ निजी क्षेत्र के बैंकों की निगरानी करने को रह गया है? आठ नवंबर, 2016 को नोटबंदी के बाद केंद्रीय बैंक को जिस तरह से दरकिनार करते हुए सरकार ने जो फैसले किए और ज्यादातर बड़े फैसलों के बारे में रिजर्व बैंक को जानकारी तक नहीं होने की बातें सामने आर्इं, उनसे तभी साफ हो गया था कि आने वाले वक्त में रिजर्व बैंक की भूमिका क्या रह जाएगी।
रिजर्व बैंक गवर्नर ने यह स्वीकार किया कि बैंकिंग नियमन अधिनियम में संशोधन कर केंद्रीय बैंक के अधिकार इतने घटा दिए गए हैं कि सरकारी बैंकों के कारोबारी प्रशासन में उसकी भूमिका नहीं के बराबर रह गई है। यह स्वीकारोक्ति इस बात को रेखांकित करती है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर नियंत्रण को लेकर सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच खाई कितनी चौड़ी हो गई है। अब बैंकों के अध्यक्ष, प्रबंध निदेशक और निदेशक मंडलों में नियुक्तियों का रिजर्व बैंक का अधिकार खत्म हो गया है। इन नियुक्तियों की कमान सरकार के हाथ में है। यह छिपी बात नहीं है कि बैंकों के शीर्ष पदों और निदेशक मंडलों में सरकार खासा दखल रखती है। ऐसे में सवाल उठता है कि बैंक का आला प्रबंधन रिजर्व बैंक के प्रति जवाबदेह होगा या फिर सरकार में बैठे लोगों के प्रति। बैंंकिंग क्षेत्र में सुधार के लिए बनी नरसिम्हन कमेटी ने भी आरबीआइ की निगरानी में बैंकों के निदेशक मंडलों को राजनीतिक दखल से बचाने का सुझाव दिया था। अगस्त 2015 में भी पीजे नायक समिति ने सरकारी बैंकों के बोर्ड के कामकाज में सुधार की जरूरत बताई थी। पर सुधार को लेकर सरकार की ओर से शायद ही कोई पहल हुई हो। अगर ऐसे सुझाव अमल में लाए जाते तो पीएनबी जैसे घोटाले नहीं होते!
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