किसी समस्या के समाधान के लिए पहले हमें उसे स्वीकार करना पड़ता है। लेकिन मैड्रिड जलवायु सम्मेलन में चर्चा के लिए जुटे तमाम वार्ताकार ऐसा करने में नाकाम रहे। पिछले किसी भी वार्षिक जलवायु सम्मेलन से अधिक समय तक चलने के बावजूद मैड्रिड सम्मेलन किसी समझौते के बगैर ही समाप्त हो गया। पेरिस समझौता असल में सुलह का एक तरीका था जिसमें हरेक के लिए कुछ-न-कुछ दिया गया था।
इस साल के 'कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज' (सीओपी-25) में किसी के लिए भी कोई प्रस्ताव नहीं रखा गया था। मुद्दा जलवायु वार्ताओं की नाकामी नहीं है। असली समस्या यह है कि हम एक-दूसरे पर भरोसा नहीं करते हैं। किसी भी रिश्ते में भरोसा बहाल करने की शुरुआत ईमानदारी से होनी चाहिए और फिर पिछली गलतियों को सुधारने पर ध्यान देना चाहिए। इससे साथ मिलकर काम करने के वादों का रास्ता बनेगा। धरती बचाने के घटनाक्रम को तीन दृश्यों में यहां पेश किया जा रहा है।
पहला कदम: सच्चाई। ईमानदारी एक गुण है और विश्वसनीयता एक प्रतिष्ठा है। जलवायु सम्मेलनों में किए गए वादे विश्वसनीय नहीं हैं क्योंकि दो कड़वे सच के बारे में ईमानदारी की कमी है। जलवायु पहले ही बदल चुकी है और उठाए जा रहे कदम पर्याप्त होने के आसपास भी नहीं हैं। विश्व का तापमान पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में कम-से-कम 3.2 डिग्री सेल्सियस बढऩे की राह पर है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने हाल में कहा है कि पेरिस समझौते की मंशा के अनुरूप अगर वैश्विक तापमान को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस वृद्धि तक ही सीमित रखना है तो 2020-30 के दौरान ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में हर साल 7.6 फीसदी गिरावट लानी होगी।
इस सबूत के बरक्स ऐसी अपेक्षा है कि हरेक देश को आकांक्षाएं बढ़ानी होंगी। लेकिन यह संकल्पना दोषपूर्ण है क्योंकि इसमें कोई शीघ्रता नहीं है। अगर एक देश वर्ष 2050 तक विशुद्ध रूप से शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य की घोषणा करता है तो उसे जलवायु नेता माना जाता है। इस दिशा में जल्द काम नहीं करने या उत्सर्जन कटौती की योजना पहले नहीं बनाने पर फटकार नहीं है। ऐतिहासिक रूप से बड़े प्रदूषक देशों के कदमों में देरी से दुनिया की बहुसंख्यक आबादी के लिए बाकी कार्बन बजट सिकुड़ता जाता है। अगर देश बुनियादी कार्बन गुणा-गणित को लेकर बेईमान बने रहते हैं तो दीर्घकालिक रणनीति विश्वसनीय नहीं है।
पहले कदम का अंत नैतिक सच्चाई के नाटकीय प्रदर्शन के साथ होना चाहिए: दीर्घकालिक रणनीतियों और बढ़ी हुई महत्त्वाकांक्षा रखने वाले देशों को यह भी बताना चाहिए कि उनकी योजनाएं किस हद तक फ्रंटलोडेड हैं और उन पर अमल करने के लिए किस तरह के नियंत्रण एवं संतुलन रखे गए हैं?
दूसरा कदम: निवारण। भूलने से कहीं अधिक आसान होता है माफ करना। अमीर देश 2020 से पहले के अपने वादों पर खरे नहीं उतरे हैं। किसी भी विकसित देश ने क्योटो प्रोटोकॉल पर किए गए दोहा समझौते के हिसाब से अपनी महत्त्वाकांक्षाएं ऊंची नहीं की। इसका मतलब है कि वर्ष 2020 तक जरूरी उत्सर्जन कटौती नहीं की गई। इसके अलावा वर्ष 2020 तक जलवायु मद में 100 अरब डॉलर के वित्तपोषण का वादा पूरा करने के बजाय 2013-18 के दौरान राहत के लिए बहुपक्षीय जलवायु कोष ने केवल 10.4 अरब डॉलर की ही मंजूरी दी और अनुकूलन फंडिंग केवल 4.4 अरब डॉलर रही।
तीसरी चुनौती यह है कि स्वच्छ विकास व्यवस्था के तहत चार अरब अनबिके प्रमाणित उत्सर्जन कटौतियां हैं। उनके लिए भुगतान नहीं करने से कार्बन बाजार में भरोसा कम होता है। उन्हें आगे ले जाने से 2020 के बाद कार्बन बाजार में क्रेडिट की भरमार होगी और आगे चलकर ऑफसेट की कीमत कम हो जाएगी।
अतीत को भुलाया नहीं जा सकता है और सभी पक्ष 1 जनवरी 2021 से लागू हो रहे पेरिस समझौते पर अमल पर ही ध्यान नहीं दे सकते हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि गैरमहत्त्वाकांक्षी कार्य, अपूर्ण वित्तीय प्रतिबद्धता और अनबिके कार्बन क्रेडिट के मुद्दे पर यह सवाल बदस्तूर कायम है कि 'मुझे कैसे पता कि तुम मुझे दोबारा मूर्ख नहीं बनाओगे?'
दूसरा कदम पिछली शिकायतों को दूर करने की मांग करता है। सितंबर 2020 तक विकसित देशों को हामी भरनी चाहिए कि 2020 से पहले की प्रतिबद्धता और परिणामों के बीच के फासले को वे 2020-पश्चात के अपने संकल्प में घरेलू स्तर पर पूरी तरह आत्मसात कर लेंगे। इसके अलावा विकसित देशों को अनबिके सीडीएम क्रेडिट को एकमुश्त समाधान के जरिये चुका देना चाहिए। दिवालिया प्रक्रिया की तरह रियायती दर पर मोलभाव करना व्याकुलता से भरा होगा।
लेकिन कोई भी तय मूल्य निम्न-कार्बन निवेश के एवज में संभावित लाखों करोड़ डॉलर की तुलना में बहुत छोटा ही होगा। ऐसे समाधान से 2020-पश्चात के उत्सर्जन कारोबार बाजार की सच्चाई बनी रहेगी जैसा जिक्र पेरिस समझौते की धारा 6 में है। ये दोनों ही कदम सरकारों और बाजारों के प्रति भरोसे को खासा बढ़ा सकते हैं।
तीसरा कदम: नवीनीकरण। सभी संबंधों को दूसरा अवसर दिया जाना चाहिए। वित्त और तकनीक पर नए सिरे से ध्यान देकर सामूहिक जलवायु प्रयास के वादे का नवीनीकरण संभव है। उभरती अर्थव्यवस्थाओं के पास निम्न-कार्बन ढांचे को छलांग लगाकर पार करने का मौका है। चीन, भारत और मैक्सिको जैसे देश नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश कर पहले से ही इसका प्रदर्शन कर रहे हैं। लेकिन वित्त की लागत संस्थागत निवेशकों को आशंकित जोखिमों के चलते निषेधकारी बनी हुई है। वित्त पर एक नए करार की जरूरत है। वैश्विक वित्त को जलवायु जोखिम एवं निवेश जोखिम की तुलना में जोखिमपूर्ण रवैया अपनाना चाहिए, प्रीमियम कीमत वास्तविकता दर्शाने वाली होनी चाहिए न कि धारणा। तमाम जोखिमों को कम करने के लिए सार्वजनिक धन के छोटे हिस्से का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
इसी तरह तकनीक पर एक नया सौदा होने से विभिन्न तरह की तकनीकों के लिए मिलजुलकर प्लेटफॉर्म बनाए जा सकेंगे। पहला, ऊर्जा-सक्षम उपकरण और वितरित बिजली को बढ़ावा देने वाले वाणिज्यिक प्रायोगिक परियोजना के जरूरतमंद। दूसरा, किफायती सौर उपकरण, ऊर्जा भंडारण और कम कार्बन वाली कूलिंग तकनीकों के लिए अहम शुरुआती निवेश के आकांक्षी। और तीसरा, अधिक जोखिम लेकिन ऊंची संभावनाओं से भरपूर तकनीकों के लिए फंड एवं वैज्ञानिक प्रतिभा को इकट्ठा करना (उद्योग के लिए नवीन ऊर्जा से निकला हाइड्रोजन, कार्बन भंडारण एवं उपयोग और सौर विकिरण प्रबंधन)।
शेक्सपियर की वह पंक्ति अच्छी सलाह देती है कि 'सबसे प्रेम करो, कुछ पर भरोसा करो और किसी के साथ भी गलत मत करो।' नवंबर 2020 में एक बार फिर सभी देश ग्लास्गो में इकट्ठा होकर जलवायु मुद्दों पर चर्चा करेंगे। हमें अपनी धरती से प्यार करना होगा, पिछली गलतियां ठीक करनी होंगी और कदम-दर-कदम भरोसा बहाल करना होगा। 'अंत भला तो सब भला' कहावत हमें यही सलाह देती है। ईमानदार एवं प्रभावी जलवायु प्रयास के लिए हम यह बात कह पाने से अभी बहुत दूर हैं।