नकदी को अर्थव्यवस्था का 'खलनायक' मानने का सच

नकदी को अर्थव्यवस्था का 'खलनायक' मानने का सच

नए साल में प्रवेश करने के साथ ही हम अपनी अर्थव्यवस्था आगे बढ़ाने और रोजगार सृजन के तरीके सुझाने वाले नए विचारों की तलाश कर रहे हैं। यह शायद फ्रांसीसी लेखक एवं दार्शनिक मार्सेल प्राउस्ट के एक सदी पहले लिखे इन शब्दों से प्रेरणा लेने का वक्त है कि 'खोज का असली सफर नई जगह पर पहुंचना नहीं बल्कि नई नजर रखने की चाह में निहित है।'

भारतीय अर्थव्यवस्था में नकदी की भूमिका को पुनर्परिभाषित करने में इस तरह की सोच उपयोगी हो सकती है। भारतीय नीति-निर्माता एवं राजनेता इस बात पर सहमत नजर आते हैं कि भारत और अति-उच्च वृद्धि वाली अर्थव्यवस्था के बीच खड़ा होने वाला मुख्य खलनायक भरपूर कर राजस्व एवं नौकरियों वाली अर्थव्यवस्था में नकदी की व्यापक भूमिका है। उनको लगता है कि अगर नकदी नदारद हो जाए और जीवन के हर क्षेत्र में सभी लेनदेन डिजिटल या इलेक्ट्रॉनिक तरीकों से होने लगे तो हम यूटोपिया तक पहुंच जाएंगे। यह धारणा कुछ उसी तरह चौतरफा काबिज है जैसे साठ के दशक में 'समाजवाद' हुआ करता था।

हमें प्राउस्ट की सलाह पर अमल करते हुए इन धारणाओं पर नई निगाह डालनी चाहिए। इसकी शुरुआत एक विश्लेषण से करते हैं जो 'डेटा माइनिंग' का कच्चा माल है। यह 'नकदी' शब्द को लेकर भारत में होने वाले सार्वजनिक विमर्श में साथ-साथ घटित होने वाली घटना है। आपको धनशोधन, काला धन, रिश्वतखोरी, कर वंचना और सस्ता या उपयोग में सरल जैसे नकदी से जुड़े शब्द मिल जाएंगे। यह दिखाता है कि भारत में अंग्रेजी-भाषी मीडिया विमर्श में नकदी के प्रति तिरस्कार की भावना कितनी गहरी घुसी हुई है।

सवाल यह है कि एक मुद्रा नोट जैसा सरल उपकरण की भी सीता जैसे निर्दोष कारोबारियों को बंदी बनाने और उन्हें धनशोधन, कर चोरी एवं रिश्वतखोरी जैसे भ्रष्ट एवं अनैतिक कृत्यों के लिए बाध्य करने वाली रावण जैसी छवि कैसे बन गई? दरअसल नकदी से कोई भी व्यक्ति तमाम गलत कामों को अंजाम दे सकता है। अगर नकदी नहीं होती तो राजनीतिक दलों को चंदा देने, रियल एस्टेट प्रॉपर्टी की नकद में खरीद-फरोख्त, रिश्वत लेना या देना भला कैसे संभव हो पाता?

लेकिन इस सोच को थोड़ा सा कुरेदने पर पता चलेगा कि नकदी से किए जा सकने वाले अपराध वास्तव में अजीब तरह के हैं: मसलन, विशेष आर्थिक क्षेत्रों में इकाइयां लगाना, विदेशी पक्षकारों के नाम पर फर्जी बिल बनाना और उनसे भुगतान लेना, इस तरह कर-मुक्त आय का सृजन या फर्जी स्टार्टअप खड़े करना और उनके नाम पर अस्तित्वहीन उपभोक्ताओं को नकद भुगतान कर उनसे चेक में भुगतान ले लेना। वर्ष 2017 में आई वरुण चांदना की किताब ' क्यूरियस केस ऑफ ब्लैक मनी ऐंड व्हाइट मनी' में नकदी पर आधारित ऐसे अजीबोगरीब कारनामों का पूरा विवरण दिया गया है।

ऐसे कारोबारी मॉडल को संभव बनाने वाली वैश्विक सोच क्या है? इसमें गहराई तक उतरने के लिए मैंने एक पारंपरिक भारतीय कारोबार से संबंध रखने वाले एक पत्रकार मित्र की मदद से मैंने ऐसे कारोबारी लोगों का नजरिया समझने में कुछ दिन लगाए। इससे मुझे कुछ मजबूत मान्यताओं के बारे में पता चला।

पहली मान्यता

कभी भी कर का भुगतान करो क्योंकि करारोपण का इकलौता मकसद नौकरशाहों को नौकरी देना है और वे समाज के लिए कोई भी उपयोगी काम नहीं करते हैं। कर देकर बचाए पैसे का इस्तेमाल मैं अपने कारोबार में करूंगा जिससे आम लोगों को रोजगार देने के अलावा समाज के लिए उपयोगी उत्पाद एवं सेवाएं मुहैया करा सकूंगा।

दूसरी मान्यता

कभी भी प्रतियोगिता में जीतने और अपना कारोबार बढ़ाने के लिए तकनीक का इस्तेमाल करें। धंधे में कामयाबी का सबसे भरोसेमंद तरीका व्यक्तिगत संबंध विकसित करना और नए ऑर्डर लेने में उस सद्भावना का इस्तेमाल करना है। पारिवारिक या सामुदायिक स्तर पर संबंधित लोग आपके संभावित ग्राहक होते हैं और उनसे संबंध बनाकर आप अपना कारोबार बढ़ा सकते हैं।

तीसरी मान्यता

आपको ऑर्डर देने या पैसे जुटाने में मदद करने वाले लोगों को पुरस्कृत करने के लिए हमेशा तैयार रहें, भले ही वे सरकारी अधिकारी क्यों हों? इन सरकारी कर्मचारियों को कम तनख्वाह मिलती है और आपको मदद के एवज में उन्हें मुआवजा दिए जाने की जरूरत है। अगर कुछ लोग इसे भ्रष्टाचार कहते हैं तो उसे अहमियत दें, उन्हें मालूम ही नहीं है कि असली जिंदगी में कारोबार कैसे किया जाता है।

अगर देश के सकल घरेलू उत्पाद एवं रोजगार में 60 फीसदी अंशदान देने वाले परंपरागत भारतीय कारोबार के बीच ऐसी मान्यताएं घर कर चुकी हैं तो फिर नकदी के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले लोग कौन हैं?

पहले स्थान पर बैंक आते हैं। उन्हें लगता है कि नकदी का इस्तेमाल पूरी तरह बंद हो जाने या फिर बहुत कम हो जाने से एटीएम मशीनों की मांग कम हो जाएगी। ग्राहक-अनुकूल नवाचार के तौर पर सामने आए एटीएम बैंकों के नजरिये से परिचालन में खर्चीले एवं जटिल साबित हो रहे हैं। हमेशा एटीएम मशीनों में नोट भरे रहने की जरूरत इसका परिचालन मुश्किल बना देती है। इस तरह नकदी-विरोधी सुर में पहली आवाज वाणिज्यिक बैंकों की है। भारत में सक्रिय विदेशी निजी इक्विटी एवं उद्यम पूंजी प्रदाता भी उनके साथ खड़े हैं। ये प्रदाता वित्त-तकनीक आधारित स्टार्टअप को फंड देते हैं जिनका भविष्य भारत में नकद-रहित लेनदेन की मात्रा एवं आकार पर ही टिका हुआ है।

फिर -कॉमर्स खुदरा कंपनियों का स्थान आता है। भारत के -कॉमर्स ग्राहक इस जिद पर अड़े हुए दिखते हैं कि सामान के घर जाने के बाद ही नकद भुगतान करेंगे। कैश-ऑन-डिलिवरी मॉडल का इस्तेमाल करने वाले -कॉमर्स ग्राहकों के भीतर तय समय से दो दिन की देर हो जाने पर सामान लौटाने की प्रवृत्ति भी पाई जाती है और ऐसा 70 फीसदी मामलों में होता है। ऐसी स्थिति में -कॉमर्स कंपनी को भेजा हुआ पैकेट वापस अपने गोदाम तक लाने का खर्च एवं श्रम दोनों लगाना पड़ता है। वहीं क्रेडिट-डेबिट कार्ड या ऑनलाइन हस्तांतरण का इस्तेमाल करने वाले ग्राहकों के बीच सामान लौटाने की दर महज तीन फीसदी है।

जहां निजी इक्विटी एवं उद्यम फर्मों का नकदी-विरोधी एवं डिजिटल-समर्थक नारे एवं बैनर उठाना देखने में भारतीय अर्थव्यवस्था को आधुनिक बनाने की मंशा से प्रेरित नजर आता है वहीं छिपी सच्चाई यह है कि वे खुद द्वारा पोषित स्टार्टअप को विदेशी कंपनियों मुख्यत: अमेरिकी एवं चीनी कंपनियों के हाथों में पलटना चाहते हैं। यही वजह है कि हमें भारतीय अर्थव्यवस्था में नकदी की भूमिका को लेकर दो अतिवादी धारणों में से नहीं, बल्कि एक संतुलित नजरिया अपनाने की जरूरत है।

   

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