समुचित जल प्रबंधन (Water management) में सुशासन अत्यंत जरूरी

 

सर्वोच्च न्यायालय ने कावेरी जल विवाद को लेकर हाल ही में जो निर्णय दिया है वह बताता है कि जल के मुद्दे पर प्रशासन को बेहतर करना होगा। स्वच्छ और ताजा पानी बहुत तेजी से एक दुर्लभ संसाधन में तब्दील होता जा रहा है। आजादी के वक्त प्रति व्यक्ति सालाना पानी की उपलब्धता करीब 5,000 घन मीटर थी जो अब गिरकर 1,500 घन मीटर रह गई है। यह स्तर वैश्विक मानक से नीचे है और पानी पर पड़ रहे दबाव को स्पष्टï करता है। यह हमारा राष्टï्रीय औसत है और कई जगह तो यह घटकर 1,000 घन मीटर रह गया है जो वैश्विक औसत से काफी कमतर है।

Read more@GSHINDI भीषण जल संकट की डरावनी आहट (Severity of water crisis)

  • Water एक ऐसा संसाधन है जिसे काफी खतरा उत्पन्न हो चुका है। पहली बात तो यह कि हमारे 20 से अधिक विकासशील ब्लॉकों में भूजल का अत्यधिक दोहन हो रहा है और यह अस्थायी स्तर पर पहुंच चुका है।
  • आजादी के बाद हमने जो 4,000 से अधिक Dam बनाए हैं उनमें नदियों से बहकर आने वाले पानी का स्तर भी काफी कम हो चुका है। यहां तक कि देश की कई नदियों की सेहत खतरे में आ चुकी है।
  • प्रदूषण भी नदियों की सेहत को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। शहरी क्षेत्र में घरेलू इस्तेमाल में आने वाला पानी और औद्योगिक गंदगी का पानी नदियों और झीलों में जाकर उन्हें प्रदूषित कर रहा है। प्रत्येक लीटर गंदे और प्रदूषित पानी से 5 से 8 लीटर स्वच्छ जल प्रदूषित हो जाता है।
  • तीसरा है जलवायु परिवर्तन को लेकर उपज रहा खतरा।

हम जो पानी इस्तेमाल करते हैं वह वर्षा से आता है और साल के दो महीनों के दौरान बरसा होता है। मॉनसून की अनिश्चितता को देखते हुए कहा जा सकता है कि बाढ़ और सूखे आदि के प्रबंधन की मदद से ही पानी का उचित प्रबंधन हो सकता है। इसके अलावा पानी की उपलब्धता पर निगरानी रखना भी आवश्यक है। जल संकट का प्रबंधन करने के लिए किफायत और क्षमता वृद्घि की जरूरत है। इसके अलावा साझा संसाधनों के उपयोगकर्ताओं के बीच उचित और समान इस्तेमाल की दिशा में सहयोग भी आवश्यक है। किफायत उत्पन्न करने के लिए मूल्य सुधार करना आवश्यक है। मौजूदा हालात में यह मुश्किल लगता है। बड़े औद्योगिक उपयोगकर्ताओं तथा शहरी प्रशासन पर पर प्रदूषण प्रबंधन की जिम्मेदारी डालना अवश्य संभव है। उदाहरण के लिए हम जोर दे सकते हैं कि इन बड़े उपयोगकर्ताओं की ताजा पानी की जरूरत उन्हीं नदियों और झीलों से पूरी की जाए जिनमें वे अपनी गंदगी उड़ेलते हैं।

What to be done?

  • सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हमें ऐसी व्यवस्था करनी होगी जहां उपयोगकर्ताओं के बीच सहयोग की व्यवस्था की जा सके। आज पानी को लेकर जो भी उथलपुथल है वह हमारी राजनीतिक और प्रशासनिक परिस्थितियों को ही दर्शाता है। कानूनी अधिकार व्यापक तौर पर राज्य सरकारों के पास रहता है और कुछ हद तक स्थानीय निकाय के पास। हालांकि देश में जलीय तंत्र के भूगोल की बात करें तो इसमें वाटरशेड (जहां कई तरह की जलधाराएं मिलती हों) जलाशय, नदी बेसिन, आदि तमाम शामिल हैं। इन सभी के इस्तेमाल को लेकर एक सहकारी व्यवस्था करने के लिए पानी के बेहतर प्रबंधन की आवश्यकता है।
  • आधारभूत स्तर पर सूक्ष्म Watershed के बाद काम शुरू हुआ और जल प्रबंधन को लेकर सामुदायिक परियोजनाओं की तादाद और उनको वित्तीय सहायता मुहैया कराने के काम मे काफी बढ़ोतरी देखने को मिली। किसी राज्य में स्थित स्थानीय वाटरशेड तो बहुत आसानी से राज्य की सीमा में रहकर निपटा जा सकता है। इसके लिए तो राज्य के विधायी और कार्यपालिक अधिकार पर्याप्त हैं। परंतु जल प्रबंधन के दौरान इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह भी एक रुटीन घरेलू सब्सिडी वाली पहल में तब्दील न हो जाए।
  • Institutional reform: अगला चरण जलदायी स्तर में संस्थागत सुधार का है जो अधिक चुनौतीपूर्ण है। कानूनन जमीन के नीचे के पानी पर भूस्वामी का अधिकार है, भले ही उस भूजल स्तर के लिए पानी अन्य लोगों के साझा संसाधन से आता हो। हमारा दीर्घावधि का लक्ष्य होना चाहिए ऐसा कानून बनाना जिसमें साझा जलदायी स्तर के प्रबंधन में सबका सहयोग हो सके। सरकार को यहां नियामक की भूमिका निभानी चाहिए। जल संकट से जूझ रहे कुछ देशों में ऐसा हो चुका है। हमारे यहां इसके विकास में वक्त लगेगा लेकिन शुरुआत करने का वक्त आ गया है।

नदी बेसिन के संयुक्त प्रबंधन को लेकर समझौतों पर पहुंचना राजनीतिक वजहों से आसान नहीं होगा। संविधान में पानी राज्य का मसला है। देश की तमाम बड़ी नदियों का पानी दो या ज्यादा राज्यों में बांटा जाता है। नदी बेसिन का एकीकृत प्रबंधन जल साझा करने के समझौतों तक सिमट गया है। केंद्र सरकार ने अंतरराज्यीय नदियों के मामले में अपने संविधान प्रदत्त अधिकार का पूरा प्रयोग नहीं किया है। रिवर बोर्ड अधिनियम के बावजूद कोई रिवर बेसिन अथॉरिटी या बेसिन आधारित योजना नहीं है। संवैधानिक प्रावधानों की हालिया चिंताओं के मद्देनजर समीक्षा की जरूरत है। परंतु तब तक हमें मौजूदा ढांचे में ही काम करना होगा।

कावेरी विवाद को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने हाल में जो निर्णय दिया है उससे इस सिद्धांत को बल मिला है कि कई राज्यों से बहने वाली नदी एक राष्ट्रीय संपत्ति है और उसे किसी एक राज्य का नहीं माना जा सकता है। यह सिद्धांत सर्वोच्च न्यायालय के 2007 के फैसले से निकला है। यह सहकारी नदी बेसिन प्रबंधन की दिशा में बढऩे के लिए कानूनी आधार मुहैया करा सकता है। पहले चरण के रूप में संबंधित राज्यों के नदी बेसिन संघ बनाए जा सकते हैं ताकि सूचना और शोध की मदद से साझा भरोसा कायम हो सके। ऐसे सहयोग की आवश्यकता दिन पर दिन बढऩे वाली है क्योंकि पानी की जरूरत भी आगे और बढ़ेगी।

राष्ट्रीय स्तर पर मिहिर शाह की अध्यक्षता वाली एक समिति ने अनुशंसा की है कि एक नया राष्ट्रीय जल आयोग बनाया जाए जो देश में जल नीति, जल से जुड़े आंकड़ों और जल प्रबंधन का ध्यान रखे। ऐसा करने से भूजल और सतह के जल से जुड़ी तकनीकी क्षमता एक जगह विकसित होगी और इन स्रोतों का बेहतर प्रबंधन सुनिश्चित होगा। परंतु इसके अलावा यह रिपोर्ट जल विकास के एक अलग तरीके की बात करती है जो मौजूदा तरीकों की तुलना में लोगों और पर्यावास पर अधिक केंद्रित है। मेरा मानना है कि इस वक्त इसी की जरूरत है। अगर हम प्रकृति की रक्षा करेंगे तो वह भी हमारी देखरेख और रक्षा करेगी।

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