भारतीय नाविकों के लिए नई चुनौती बनता पश्चिम अफ्रीका
गिनी की खाड़ी भारतीय नाविकों के लिए असुरक्षित हो चली है। पिछले महीने वहां समुद्री डाकुओं ने तेल ढोने वाले दो भारतीय जहाजों को अगवा कर लिया और भारतीय चालक दल को बंधक बना ले गए। 3 दिसंबर को उन्होंने 16 अन्य नाविकों का अपहरण किया, और 15 दिसंबर को वे एक बार फिर 20 नाविकों को उठा ले गए। पहले समूह को बेशक उन्होंने 23 दिसंबर को रिहा कर दिया, लेकिन दूसरे और तीसरे समूह के नाविक इन पंक्तियों के लिखे जाने तक मुक्त नहीं हो सके थे।
कम से कम तीन वजहों से भारतीय यहां निशाने पर हैं। पहली, पिछले कुछ वर्षों से यह खाड़ी दुनिया भर में ‘अपहरण के मुख्य केंद्र' के रूप में उभरी है। इस तरह अगवा करने की 82 फीसदी घटनाएं यहां हुई हैं। सोमालियाई डाके के कम होने से आई शांति को पश्चिम अफ्रीकी डाकुओं ने मानो भंग कर दिया है। इनका अड्डा अमूमन नाइजीरिया के तेल-समृद्ध क्षेत्र घने जंगल वाले नाइजर डेल्टा में है। दूसरी वजह पश्चिम अफ्रीका के साथ हमारा बढ़ता समुद्री व्यापार है, क्योंकि तेल की खरीदारी के कारण हम नाइजीरिया के सबसे बड़े कारोबारी-साझीदार बन गए हैं। नतीजतन, यहां से हमारे जहाजों की आवाजाही बढ़ गई है। तीसरी वजह है, खुले सागरों में जाने वाले हमारे नाविकों की बढ़ती संख्या। यह संख्या अब दो लाख से अधिक हो गई है और पिछले तीन वर्षों में इसमें 45 फीसदी की वृद्धि हुई है।
कई स्थानीय कारणों से भी इस खाड़ी में हमारे नाविकों के लिए मुश्किलें बढ़ी हैं। तटवर्ती देशों की अपेक्षाकृत कमजोर नौसेनाएं और तटरक्षक बल, बेरोजगार नौजवान और नाइजर डेल्टा में सुलगता विद्रोह इन कारकों में शामिल हैं। अपहरणकर्ताओं को आमतौर पर राजनीतिक संरक्षण हासिल होता है। अपराधियों का यह सिंडिकेट तेल पाइपलाइन को नुकसान पहुंचाने, सुरक्षा देने के नाम पर जबरन वसूली करने और खुले सागर में अनधिकृत रूप से कच्चा तेल बेचने में भी सक्रिय है। इस दुश्चक्र से होने वाले ‘लाभ' का इस्तेमाल घातक हथियार खरीदने और अधिक से अधिक रंगरूटों की भर्ती करने में किया जाता है। नतीजतन, इस अपराध सिंडिकेट के पास गहरे समुद्र में भी पहुंचने की क्षमता हो गई है और 23.5 लाख वर्ग किलोमीटर में फैली गिनी की खाड़ी में इनका आभासी रूप से अबाध कब्जा हो गया है। चूंकि समुद्री बीमाकर्ता नाविकों की रिहाई के लिए बातचीत और फिरौती का भुगतान करते हैं, इसलिए अपहरणकर्ता यह जानते हैं कि उन्हें फिरौती तभी मिल सकती है, जब अगवा किए गए लोगों को जिंदा रखा जाए। लिहाजा राजनीतिक अपहरण के उलट इन मामलों में नाविकों को तब तक नुकसान नहीं पहंुचाया जाता, जब तक कि वे विरोध या भागने की कोशिश न करें। फिर भी, सबसे ज्यादा बदनसीब नाविक या उनके परिजन ही साबित होते हैं। बेशक उन्हें शारीरिक रूप से चोट नहीं पहुंचाई जाती, लेकिन उनके साथ जोर-जबर्दस्ती होती है और उन्हें दिमागी सदमा भी पहुंचता है। वैसे कुछ नाविकों को ‘स्टॉकहोम सिंड्रोम' भी हो जाता है और अपहरणकर्ताओं से लगाव हो जाता है।
सवाल यह है कि भारत और विश्व समुदाय इनसे कैसे निपट सकता है? पश्चिम अफ्रीका के साथ कारोबार खत्म करना या नाविकों को यहां जाने से रोकना निश्चय ही व्यावहारिक उपाय नहीं है। हां, सोमालियाई डकैती को कम करने की जो रणनीति अपनाई गई थी, उसे जरूर आजमाया जा सकता है। हालांकि इसके लिए दो समान स्थितियां हैं, तो दो प्रमुख अंतर भी हैं। पश्चिम अफ्रीका में इस्तेमाल किया जाने वाला हथियार कहीं अधिक धातक और आधुनिक है, लेकिन ये उन पेशेवर नौसेनाओं की तरह भी नहीं, जो उपग्रह और हवाई निरीक्षण जैसी तकनीकों के उपयोग में माहिर हैं। फिर, सोमालिया के तटों पर किसी का शासन नहीं था, जबकि पश्चिमी अफ्रीका में सरकारें हैं, जो बेशक कमजोर हैं और इन डाका को किसी और की समस्या मानती हैं। उन्हें अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए मदद की दरकार है। अपराधियों को अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय तक लाना भी एक निदान हो सकता है। हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर भी हमें नाविकों के लिए जागरूकता अभियान चलाना होगा, ताकि ऐसी मुश्किलों से लड़ने में उन्हें मदद मिल सके। ‘समुद्री जलदस्युता रोधी विधेयक' भी एक सुखद कदम है, जिसे पिछले महीने ही लोकसभा में पेश किया गया है।