#Rajasthan_Patrika
भारत में ‘एक देश एक चुनाव’ का प्रयास लोकतंत्र को सुदृढ़ बनाने की बजाय उसको कमजोर ही करेगा। यह देश हित में नहीं है। इसके लिए चुनाव पर बहुत ज्यादा धन खर्च होने और निरंतर चुनाव से प्रशासन के व्यस्त रहने व विकास कार्य में अड़चनों की दलीलें दी जा रही हैं। चुनाव आयोग द्वारा कराए गए चुनाव में होने वाले खर्च को राष्ट्र वहन नहीं कर सकता, यह कभी नहीं कहा गया। चुनाव खर्च का ताल्लुक राजनीतिक दलों व उम्मीदवारों के खर्चों से ही होता है।
इसके पीछे प्रचार साधनों के महंगे होने का तर्क होता है और राजनीतिक दलों के लिए जिताऊ होना उम्मीदवार की योग्यता होती है।
क्षेत्र में उसके काम व जीतने के तरीके पर ध्यान नहीं दिया जाता।
बहुतों के जिताऊ होने का आधार धन व बाहुबल होता है। इन जिताऊ उम्मीदवारों की अन्य योग्यता नहीं होती इसीलिए वे प्रचार में अधिकाधिक खर्च करते हैं।
राजनीतिक दल सदस्यों में चुनाव करवाएं और पारदर्शी तरीके से उम्मीदवार चुनें तो प्रचार खर्च घट जाएगा। चुनाव लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण है।
चुनाव खर्च कम करने के लिए चुनावों को कम करवाना लोकतंत्र पर घातक प्रहार है। दलील यह भी है कि निरंतर चुनाव होने से कहीं न कहीं आदर्श चुनाव संहिता लागू रहती है और इससे प्रशासन व विकास के कार्य बंद हो जाते हैं। लेकिन,आचार संहिता प्रशासन और विकास कार्य की चलती हुई योजनाएं बंद करने की बात नहीं कहती। यह वहीं लागू होती है, जहां चुनाव हो रहा हो। एक तर्क यह भी है कि सरकार के बड़े नेताओं के चुनाव प्रचार में व्यस्त होने से भी प्रशासनिक कार्य बाधित होता है।
हम क्यों भूल जाते हैं कि जो नेता कार्यपालिका में होते हैं वे अगले पांच साल तक पद की जिम्मेदारी निभाने की शपथ लेते हैं। लेकिन, ये पद की शपथ को या तो भूल जाते हैं या जानबूझकर नकार देते हैं। जिन लोगों के बिना चुनाव प्रचार हो ही नहीं सकता, उन्हें कार्यपालिका के पदों पर नहीं बिठाना चाहिए।
लोकसभा का एक ही चुनाव होता है। विभिन्न राज्य विधानसभाओं के लिए अलग-अलग चुनाव होते हैं। संविधान राज्यों को अलग पहचान व जिम्मेदारी देता है अत: विधानसभाओं के चुनावों को लोकसभा के साथ बांधना संघीय ढांचे की अवधारणा के विरुद्ध है।
एक देश एक चुनाव कराने के लिए संविधान में संशोधन करने होंगे जो फिलहाल मुमकिन नहीं लगता। यदि ऐसा हुआ हो तो ध्यान दिला दूं कि केशवानंद भारती निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने कहा हुआ है कि संविधान के आधारभूत ढांचे को बदलने का अधिकार संसद को भी नहीं है। संघीय प्रणाली संविधान के आधारभूत ढांचे का अटूट हिस्सा है। एक देश एक चुनाव इस संघीय प्रणाली को बदलकर इकाई प्रणाली बनाने का अप्रत्यक्ष प्रयास लगता है।