हिंसक भीड़ से हारता कानून (Mob lynching and law)

What is the Issue: राजस्थान के अलवर जिले में भीड़ के हाथों गो-तस्कर के संदेह में अकबर खान को उस दिन मारा गया जिस दिन संसद में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान भीड़ की हिंसा का मामला उठा था और उसके चंद दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने इस पर एक अलग कानून बनाने को कहा था।

Police & Its Insensivity: अकबर की जान बचाई जा सकती थी, यदि अलवर पुलिस ने तत्परता और साथ ही संवेदनशीलता का परिचय दिया होता। पुलिस ने अकबर के पास से मिली गाय को पहले गोशाला पहुंचाया। इसके बाद उसे अस्पताल ले गई। तब तक देर हो चुकी थी।

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No fear of law: जब उसकी पिटाई हो रही थी तो पीटने वाले यह भी कह रहे थे कि विधायक जी हमारे साथ है। हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। पता नहीं यह कितना सच है और हो सकता है कि इसमें विधायक जी की कोई गलती न हो, लेकिन यह मानने के पर्याप्त कारण हैैं कि कानून हाथ में लेने अर्थात अकबर खान की जान लेने वाली भीड़ को यह पता था कि इस कृत्य की कोई सजा नहीं मिलने वाली

जब कानून का शासन पंगु हो, जब दंड का भय न हो और जब यह यकीन हो कि हिंसक व्यवहार को सराहा जाएगा तो फिर किसी अकबर को पीट-पीटकर मार देने में कथित लक्ष्य की त्वरित प्राप्ति दिखाई देने लगती है। नेताओं का दंगे में आरोपित लोगों के घर या जेल जाकर सहानुभूति दिखाना भी इसी कड़ी का हिस्सा जान पड़ता है। जब कानून का शासन पंगु हो, जब दंड का भय न हो और जब यह यकीन हो कि हिंसक व्यवहार को सराहा जाएगा तो फिर किसी अकबर को पीट-पीटकर मार देने में कथित लक्ष्य की त्वरित प्राप्ति दिखाई देने लगती है। नेताओं का दंगे में आरोपित लोगों के घर या जेल जाकर सहानुभूति दिखाना भी इसी कड़ी का हिस्सा जान पड़ता है।

Judicial delay also problem: आखिर उग्र भीड़ को कहीं से तो यह भरोसा रहा होगा कि उसकी गुंडागर्दी का कुछ लोग सीधे या फिर दबे-छिपे समर्थन करेंगे। अगर किसी नेता के संरक्षण-समर्थन का दावा करके सिस्टम को ठेंगा दिखाया जा सकता है तो यह जंगलराज की निशानी है। इस सिस्टम में पुलिस के साथ कानूनी प्रक्रिया भी शामिल है।

संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है, हम भारत के लोग...संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। इस प्रस्तावना में न तो भीड़ के न्याय के लिए कोई जगह है और न ही उसका परोक्ष या प्रत्यक्ष समर्थन करने वाले नेताओं के लिए। इस प्रस्तावना में गाय के नाम पर मनमानी करने और कानून हाथ में लेने वालों के लिए भी कोई जगह नहीं। भारत के लोगों को यह फैसला करने का अधिकार नहीं कि कौन गो तस्कर है और कौन नहीं? उन्हें यह भी अधिकार नहीं कि वे किसी को महज शक के आधार पर घेर कर मारें, लेकिन ऐसी घटनाएं लगातार घट रही हैैं और अब तो उनमें वृद्धि भी देखी जा रही है। दरअसल जब कानून बनाने वाले और उसका अनुपालन करने और कराने वाले एक भाव-भूमि में हों तो संविधान पुनर्परिभाषित होने लगता है। ऐसी हालत में यदि अदालतें भी अपना काम सही ढंग से न करें तो स्थितियां और खराब हो जाती हैं। दुर्भाग्य से वर्तमान में ऐसी ही स्थिति नजर आती है।

Tarnish International Image: भीड़ की हिंसा के बढ़ते मामले दुनिया में देश की बदनामी कराने वाले ही नहीं, आदिम युग की झलक पेश करने वाले हैं। कानून का लचर और निष्प्रभावी शासन देश को उस आदिम सभ्यता में ले जाने वाला है जिससे निकलने में हजारों साल लगे। दरअसल जब कानून प्रत्यक्ष रूप से काम नहीं करता और न्यायपालिका भी फैसले करने में जरूरत से ज्यादा समय लगा देती है तो न्याय मूकदर्शक बनने लग जाता है।

Judicial Guidelines not being implimented:

  • पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायलय ने भीड़ की हिंसा के खिलाफ सख्त रुख तो दिखाया, लेकिन भीड़ की हिंसा के बढ़ते मामले बता रहे हैं कि उसके सख्त रुख का जमीन पर कोई असर नहीं। उसकी ओर से तो ऐसी कोई चेतावनी दी जानी चाहिए थी कि अगर भीड़ की हिंसा के मामले सामने आते है तो यह मानकर कि प्रशासन असफल रहा, एसपी और डीएम को अगले कुछ साल प्रोन्नति नहीं मिलेगी तो शायद सही संदेश जाता और लोग कानून हाथ में लेने से बचते। अभी तो ऐसा कुछ नहीं दिखाई दे रहा है। जहां तक भीड़ की हिंसा रोकने के मामले में सुप्रीम कोर्ट की ओर से दिए गए दिशानिर्देशों की बात है, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पुलिस सुधार पर 2006 में दिए गए उसके दिशानिर्देशों पर अब तक अमल नहीं हो सका है।

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