दारा शुकोह का बहुविध व्यक्तित्व

दारा शुकोह का बहुविध व्यक्तित्व

दारा शुकोह शाहजहां के पुत्र थे और माना जाता था कि अपने पिता के बाद वही मुगल सल्तनत की बागडोर संभालेंगे, लेकिन औरंगजेब ने साजिश करके युद्ध में उनको परास्त कर दिया और मुगल सल्तनत पर कब्जा जमा लिया। उसके बाद की बातें इतिहास में दर्ज हैं। चूंकि दारा शुकोह बादशाह नहीं बन सके, इस वजह से उनके बहुत सारे काम कम ज्ञात रहे। अवीक चंदा की यह पुस्तक दारा शुकोह के व्यक्तित्व के उन पहलुओं को ही सामने लाती है। लेखक ने ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर इस प्रश्न का उत्तर खोजने की कोशिश की है कि अगर दारा शुकोह मुगल सल्तनत की गद्दी संभालते तो क्या होता। क्या तब भारत की तस्वीर कुछ और होती या भारत इतनी जल्दी गुलाम नहीं होता? क्या इनके गद्दी संभालने से वैमनस्यता बढ़ती? ये ऐसे सवाल हैं, जिन पर पहले भी इतिहासकार मंथन करते रहे हैं। माना जाता है कि औरंगजेब के शासनकाल में मुगलिया सल्तनत का विस्तार तो हुआ, लेकिन इस विस्तार की बुनियाद औरंगजेब की क्रूर नीतियां बनीं। इसके अलावा औरंगजेब को मंदिरों को तोड़नेवाला, तानाशाही बादशाह, भाई का कातिल और धार्मिक असहिष्णुता का पैरोकार माना गया।अवीक चंदा ने इस किताब में दारा शुकोह की जिंदगी और पिता शाहजहां की विरासत पर विचार किया है। इस पुस्तक में लेखक ने दारा शुकोह की जिंदगी के सभी महत्वपूर्ण पड़ावों को समेटने की कोशिश की है। इसमें उनका बचपन भी है। दारा शुकोह को मुमताज महल ने वर्ष 1615 में जन्म दिया। वह जीवन के अंत तक अपने पिता के बेहद करीब रहे। फिर उनकी जिंदगी का खूबसूरत दौर आता है, जिसमें उनकी शादी नादिरा बेगम के साथ होती है। फिर दारा शुकोह की जिंदगी में वह दौर भी आता है, जब वह अपने पिता की सेना के कमांडर थे और पुस्तकों से दूर थे। उस दौर में उनकी मानसिकता को लेखक ने सूक्ष्मता से पकड़ा है। लेखक का मानना है कि दारा शुकोह युवावस्था में अपने पिता के साथ छाया की तरह रहते थे, कह सकते हैं कि परोक्ष रूप से वही राजकाज संभालते थे। किताब में चंदा ने मुगल सल्तनत के दौरान उत्तराधिकार के खूनी जंग को भी विश्लेषित किया है और इस बात को भी रेखांकित किया है कि बड़े लड़के के पास स्वत: बादशाह होने का हक नहीं आ जाता था। इस क्रम में वह शाहजादा खुर्रम के बादशाह शाहजहां बनने में हिंसक तौर-तरीकों का जिक्र भी करते हैं। आधुनिक बुद्धिजीवी दारा शुकोह का एक ऐसे विद्वान के तौर पर रेखाचित्र प्रस्तुत करते हैं, जहां वह एक सूफी भी हैं, कवि भी हैं, लेखक भी हैं, अपने लेखन में इतिहास के कालखंड को क्रम भी देते हैं और कला के संरक्षक के तौर पर भी उभरकर सामने आते हैं। पुस्तक को पढ़ने के बाद पाठकों को इस बात का एहसास होता है कि दारा शुकोह का मूल्यांकन युद्ध के मैदान में नहीं, बल्कि कला और संस्कृति के अलावा सामाजिक क्षेत्र में हो सकता है। दारा शुकोह ने जिस बहुलतावादी समाज की परिकल्पना की थी, उसे उनकी रचना ‘मजमा-उल बहरैन’ में देखा जा सकता है। इसके अलावा दारा शुकोह ने उपनिषदों का फारसी में अनुवाद किया, हालांकि उनके जीवन काल में उनके इस काम को तवज्जो नहीं मिली, लेकिन जब अठाहरवीं शताब्दी में एक फ्रांसीसी विद्वान ने इसका लैटिन में अनुवाद किया तो दुनिया की नजर इस काम पर गई। कुल मिलाकर, इस पुस्तक को पढ़कर दारा शुकोह के बहाने मुगल सल्तनत के विशेष कालखंड का इतिहास भी सामने आता है।

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