रंगोली के जरिए लोकतांत्रिक विरोध की अनूठी शैली
इस नई सदी में पैदा व जवान हुई पीढ़ी और कॉलेज छात्रों की सक्रिय भागीदारी ने इन विरोध प्रदर्शनों को रचनात्मक और जीवंत बनाया है। चुटीले मीम्स, पोस्टरों, नारों और तीखे संदेशों ने युवा पीढ़ी की नाराजगी को काफी प्रभावी तरीके से अभिव्यक्त किया है। उस दौर में यह सब सचमुच चौंकाने वाला है, जिसमें इस पीढ़ी पर तोहमत मढ़ी जा रही थी कि अपने सेलफोन में सिमटी इस नस्ल की समाज और सियासत में रत्ती भर भी दिलचस्पी नहीं।
लेकिन तमिलनाडु में कोलम यानी रंगोली के जरिए जिस तरह का विरोध प्रदर्शन हुआ, वह बिल्कुल अलग ही किस्म का था। मुट्ठी भर चावल के आटे के ज्यामितीय व्यवस्थित इस्तेमाल से इस विरोध को अभिव्यक्ति दी गई। पिछले हफ्ते ऐसे पांच प्रदर्शनकारियों को पुलिस पकड़कर ले गई और कुछ घंटे तक हिरासत में रखने के बाद उन्हें रिहा किया गया। प्रदर्शनकारियों पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने सार्वजनिक मार्ग को बाधित किया था, जबकि प्रदर्शनकारियों का दावा है कि वे तो अपने या उन लोगों के घरों के आगे सीएए विरोधी रंगोली बना रहे थे, जिन्होंने उनके इस कदम पर अपनी आपत्ति नहीं जताई। वे सिर्फ चार-पांच लोग थे और उन्होंने किसी नियम-कायदे का उल्लंघन नहीं किया। हां! उन्होंने अपने इस विरोध के लिए पुलिस से पूर्व अनुमति नहीं ली थी।
पुलिस का दावा कि एक गृहस्वामी ने उसके पास शिकायत दर्ज कराई थी कि बगैर उनकी इजाजत के प्रदर्शनकारियों ने उनके घर के आगे सीएए विरोधी रंगोली बनाई, इसलिए उसे यह कदम उठाना पड़ा। लेकिन इस पुलिसिया कार्रवाई ने आग में घी डालने का काम किया। विरोध का यह तरीका पूरे राज्य में फैल गया। काफी सारे लोग अपने-अपने घरों के आगे ऐसी ही रंगोली बनाने लगे। इस विरोध प्रदर्शन की शुरुआत महज 18-19 साल के नौजवानों ने की थी, मगर देखते-देखते यह वायरल और राजनीतिक हो गया। विपक्ष के नेता एम के स्टालिन और डीएमके की महिला शाखा प्रमुख कनिमोई बगैर मौका गंवाए न सिर्फ इन प्रदर्शनकारियों से मिलने पहुंच गए, बल्कि उन्होंने अपने-अपने घरों के आगे भी सीएए विरोधी रंगोली बनाई और पार्टी कार्यकर्ताओं का भी इस विरोध शैली से जुड़ने का आह्वान किया।
लेकिन इस विरोध प्रदर्शन का साफ राजनीतिक असर दिखा है। कई वर्षों के बाद अन्नाद्रमुक सरकार ने तमिलनाडु में पिछले हफ्ते स्थानीय निकाय चुनाव करवाए। इन चुनावों में डीएमके ने अच्छी जीत हासिल की। कहा जाता है कि डीएमके की इस जीत में सीएए विरोधी प्रदर्शनों ने अहम भूमिका निभाई है। पूर्व में भी राजनीतिक विरोध के लिए रंगोलियों का सहारा लिया जा चुका है। कहते हैं कि जब एमजीआर ने अन्नाद्रमुक का गठन किया था, तब उन्होंने महिला कार्यकर्ताओं से यह अपील की थी कि वे अपनी रंगोली में दो पत्तियों वाले चुनाव-चिह्न को शामिल करें। 1975 में डीएमके ने अपने चुनाव-चिह्न उगते हुए सूर्य को लोकप्रिय बनाने के लिए यही रास्ता अपनाया।
वैसे तो देश भर में विभिन्न मौकों पर महिलाएं रंगोली बनाती हैं, मगर तमिल संस्कृति, परंपरा और धर्म में इसका एक खास महत्व है। बताया जाता है कि संगम काल से ही रंगोली इसकी परंपरा का हिस्सा रही है। तमिल कैलेंडर में मरगाजी के महीने (15 दिसंबर से 15 जनवरी) को काफी पवित्र माना जाता है। इस पूरे महीने में लोग मंदिरों में अपने ईष्टदेव की पूजा करते हैं। मरगाजी कोलम बड़े उत्साह के साथ ब्रह्म मुहूर्त में बनाए जाते हैं। मान्यता है कि ईश्वर इस महीने में धरती पर आते हैं।
सवाल यह है कि रंगोली से राज्य क्यों डर रहा है? तमिलनाडु में लोगों का मानना है कि सिर्फ केंद्र को खुश करने के लिए राज्य सरकार झुक रही है। केंद्र को किसी तरह के विरोध-प्रदर्शन से एलर्जी है, क्योंकि वह डरता है कि यह व्यापक विद्रोह का रास्ता तैयार कर सकता है। साफ है, केंद्र सरकार ने सीएए के खिलाफ देश भर में हो रहे स्वत:स्फूर्त विरोध प्रदर्शनों को सख्ती से कुचलने का फैसला किया है। पर तमिलनाडु के विपक्षी नेता राज्य सरकार की खिल्ली उड़ा रहे हैं कि वह सिर्फ केंद्र के अपने आकाओं को खुश करने के लिए यह सब कर रही है।