गरीबी रेखा को ऊपर-नीचे करके आजादी से लेकर अब तक गरीबों की संख्या भले ही घटाई- बढ़ाई जाती रही हो, लेकिन गरीबी की रेखा न घटी और न ही गरीब-अमीर के बीच की खाई कम हुई। संसाधनों की प्रचुरता के बावजूद गरीबी के आंकड़ों मे हो रही निरंतर वृद्धि सोचने को मजबूर करती है कि आखिर क्या वजह है कि एक तरफ करोड़पति अमीरों की संख्या बढ़ती जा रही है, तो दूसरी तरफ, फुटपाथ पर भीख मांग कर गुजारा करने वालों की संख्या में भी वृद्धि हो रही है।
- विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में 2013 में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या सबसे अधिक भारत में थी।
- रिपोर्ट में कहा गया है कि उस साल भारत की तीस प्रतिशत आबादी की औसत दैनिक आय 1.90 डॉलर से कम थी और दुनिया के एक तिहाई गरीब भारत में थे।
- आज भी इस स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है। ‘पॉवर्टी ऐंड शेयर प्रॅसपेरिटी’ (गरीबी और साझा समृद्धि) शीर्षक से जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की वृद्धि क्षमता से नीचे चल रहे होने के बावजूद पूरी दुनिया में गरीबी की दर में गिरावट तो आई है लेकिन जिस अनुपात में अमीरों की आय बढ़ी है उस अनुपात में यह गिरावट बहुत मामूली है।
- 2013 में जारी आंकड़ों के मुताबिक पूरी दुनिया में गरीबों की संख्या करीब 80 करोड़ में भारत में गरीबी रेखा के अंतरराष्ट्रीय मानक से नीचे जीवनयापन कर रहे लोगों की संख्या 22.7 करोड़ है।
- माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स ने कभी कहा था कि ‘गरीबी में जन्म लेना गुनाह नहीं है, गरीबी में मर जाना गुनाह के समान है।’ एक क्षण के लिए यदि इस कथन को सही भी मान लिया जाए तो प्रश्न उठना लाजमी है कि इस गुुुनाह केलिए आखिर जिम्मेवार किसे माना जाए। उस गरीब को, जो तमाम प्रयासों के बावजूद गरीबी से उबरने योग्य अर्थोपार्जन नहीं कर पाया, या उस सरकार को, जो संसाधनों की प्रचुरता के बावजूद उसके लिए नौकरी-धंंधे का बंदोबस्त नहीं कर पाई? क्योंकि बिल गेट्स से काफी पहले, गरीबी के कारण कर्ज मेंं डूबे किसानों के बारे में भारत के अर्थशास्त्री कह चुके हैं कि भारत का किसान कर्ज में जन्म लेता हैै, कर्ज में ही बड़ा होता हैै और कर्ज में ही मर जाता है। यही स्थिति गरीबों की है।
Is Government schemes Working:
निश्चित ही गरीबों की स्थिति में बदलाव के लिए सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों का असर भी हो रहा है।
- विश्व सामाजिक सुरक्षा के तहत रोजगार प्रदान करने में विश्व बैंक ने मनरेगा को पहले स्थान पर माना है।
- रिपोर्ट में कहा गया है कि इससे भारत के पंद्रह करोड़ लोगों को रोजगार मिल रहा है। इसी तरह मध्याह्न भोजन (मिड-डे मील) योजना को भी सबसे बड़ा विद्यालयी कार्यक्रम कहते हुए इसकी सराहना की गई है। इससे 10.5 करोड़ बच्चे लाभान्वित हो रहे हैं। लेकिन यह तस्वीर का सिर्फ एक पहलू है।
What is the other side of story?
- वास्तविकता यह भी है कि मिड-डे मील योजना और मनरेगा भ्रष्टाचार की शिकार रही हैं।
- देश में जहां एक तरफ स्मार्ट सिटी और डिजिटलाइजेशन की बात हो रही है, वहीं करीब सत्ताईस करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं।
- गरीबी एक ऐसा कुचक्र है जिसमें उलझा व्यक्तिचाह कर भी उससे निकल नहीं पाता है। अंतत: गरीब को गरीब बनाए रखने के लिए गरीबी ही जिम्मेवार होती है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री रेगनर नर्कसे ने कहा है कि ‘कोई व्यक्ति गरीब है, क्योंकि वह गरीब है। यानी वह गरीब है इसलिए ठीक से भोजन नहीं कर पाता, जिससे उसका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता, जिससे वह कुपोषण का शिकार रहता है। परिणामस्वरूप वह ठीक तरह से काम नहीं कर पाता है।
नतीजतन वह गरीब ही बना रहता है। इस तरह गरीबी का दुश्चक्र अंत तक उसका पीछा नहीं छोड़ता है।’ योजनाएं बना देना और समिति गठित कर देना एक बात है और उनका सही क्रियान्वयन दूसरी बात। क्या सरकार वाकई गरीबी कम करने के लिए प्रतिबद्ध है? सरकार द्वारा जारी आंकडेÞ तो कुछ और ही कहानी बयान कर रहे हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) की रिपोर्ट के मुताबिक 1999-2000 में निर्धनता का प्रतिशत 26.1 था, जो 2004-05 में घट कर 21.8 प्रतिशत रह गया था। लेकिन 2008 में सरकार द्वारा गठित तेंदुलकर समिति ने माना कि निर्धनता का प्रतिशत 37.2 था। यूपीए-2 सरकार के समय, 2013 में, एनएसएसओ के अनुमान पर योजना आयोग ने शहरी इलाकों में 28.65 रुपए और ग्रामीण इलाकों में 22.42 रुपए रोजाना कमाने वाले को गरीबी रेखा के नीचे रखा था। इस पैमाने को लेकर मुख्य विपक्षी दल के नाते तब भाजपा ने खूब बवाल मचाया था। लेकिन 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के कुछ महीने बाद योजना आयोग ने 32 रुपए ग्रामीण और 47 रुपए शहरी इलाकों में दैनिक खर्च का पैमाना तय किया। यह भी किसी मजाक से कम नहीं है।
Need localised Policies:
वर्तमान महंगाई के दौर में ये आंकडे गरीब के जले पर नमक छिडकने से कम नहीं हैं। इस आंकडेÞ को ही पैमाना मान कर गणना की जाए तो आज भारत में गरीबी की रेखा के नीचे जीवनयापन करने वालों की संख्या 37 करोड़ से ज्यादा है। विकासशील देशों की बात तो छोड़िए, भारत की हालत तो अफ्रीका के कई दुर्दशाग्रस्त देशों से भी खराब है। लोगों के हाथों में मोबाइल, कंप्यूटर और सड़कों पर गाड़ियों की संख्या देख कर देश की स्थिति का आकलन करने वालों को समझना चाहिए कि दुनिया बिल्कुल वैसी नहीं है जैसी टीवी के रंगीन परदे पर दिखाई देती है। कभी-कभार खबर बनकर सामने आने वाली कुछ घटनाएं गरीबी के भयावह मंजर से रूबरू करा देती हैं। जैसे हाल में एक गरीब बारह किलोमीटर तक अपनी पत्नी की लाश को कंधे पर ढोने को मजबूर हुआ, तो दूसरे को कूड़े के ढेर में आग लगा कर लाश का क्रियाकर्म करना पड़ा।
आर्थिक विकास दर (जीडीपी) को अब खुशहाली का पैमाना नहीं माना जा सकता। जहां एक ओर नेता, अफसर, व्यापारी, धर्म के ध्वजवाहक ठाठ की जिंदगी बसर कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर गांव, कस्बे, पहाड़ी व रेगिस्तानी इलाकों और झुग्गी-झोपड़ी तथा तंग गलियों में रहने वाले लोग जानवरों से भी बदतर जिंदगी जीने को मजबूर हैं। उनके पास न तन ढंकने को कपड़ा है, न पेट भरने को भोजन और सिर पर छत का तो सवाल ही नहीं। भारत को बाजार आधारित खुली अर्थव्यवस्था बने पच्चीस साल से अधिक का समय हो चुका है। इसके बाद भी देश की एक चौथाई आबादी गरीब है, तो प्रश्न उठेगा ही कि आखिर क्या किया हमने इतने सालों में? जबकि इस दौरान भारत की विकास दर अच्छी-खासी रही। राज्यों की दृष्टि से देखें, तो छत्तीसगढ़ सबसे गरीब राज्य है, जहां ग्रामीण गरीबी 44.6 प्रतिशत है। केंद्रशासित प्रदेशों में दादर एवं नगर हवेली सबसे गरीब है जहां 62.9 प्रतिशत गरीबी है। भूखे को रोटी देना जितना जरूरी है, उससे कहीं अधिक जरूरी उसे कमाने लायक बनाना है। आर्थिक सर्वेक्षणों के नतीजों से स्पष्ट हो गया है कि अब तक की सारी गणनाओं में गरीबी की जो स्थिति बताई जाती है वह वास्तविकता से कम है। भारत में ज्यादातर गरीब लोग (करीब साठ प्रतिशत) बिहार, झारखंड, ओड़िशा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में रहते हैं। लिहाजा, इन राज्यों के मद््देनजर कुछ विशेष योजनाएं बननी चाहिए।