सरकार न्यायपालिका पर ऐसे आदेश जारी करने के आरोप लगाती रही है, जिनका अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ता है। हाल ही में संसद में पेश की गई आर्थिक समीक्षा में भी कुछ ऐसा ही कहा गया है। लेकिन अदालतों की आवाज नहीं सुनी जाती है क्योंकि वह कानूनी रिपोर्टों में दफन है। सरकार को हाल के सप्ताहों के वे फैसले पढऩे चाहिए, जिनमें उसे फटकार लगाई गई है।
- सरकार देश में सबसे बड़ी वादी है, जो 14 लाख मामलों यानी कुल मामलों में से 46 फीसदी में पक्षकार है।
- उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने बार-बार सरकारी संस्थाओं और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की इस बात को लेकर आलोचना की है कि वे अदालती प्रक्रिया का दुरुपयोग कर रही हैं और छोटे-मोटे मामलों की याचिका उच्चतम न्यायालय तक लेकर जा रही हैं। पिछले एक महीने ही में ऐसी तीन फटकार लगाई गई हैं।
- उच्चतम न्यायालय ने महाराष्ट्र राज्य वितरण कंपनी बनाम दातार स्विचगियर लिमिटेड मामले में अपने फैसले में कहा कि इस सरकारी कंपनी का 2004 के मध्यस्थता फैसले के खिलाफ बार-बार याचिका दायर करना ‘केवल मामले में नए सिरे से जिरह का प्रयास है, जिसकी मंजूरी नहीं दी जा सकती।’
- न्यायालय ने भारत संघ बनाम सुसका लिमिटेड मामले में रेलवे को फटकार लगाते हुए कहा कि वह 2002 के मध्यस्थता फैसले के तहत तय की गई राशि के भुगतान से बचने के लिए नए और तकनीकी तर्क पेश कर रही है। इस फैसले में कहा गया, ‘सरकार को नागरिकों से जुड़े मामलों में एक ईमानदार व्यक्ति की तरह पेश आना चाहिए।’
- उच्चतम न्यायालय ने मिश्रा ऐंड कंपनी बनाम दामोदर वैली कॉरपोरेशन मामले में अपने फैसले में फिर से यह बात दोहराई, ‘सरकारी संस्थानों को लंबे वाद में नहीं पडऩा चाहिए और उन मामलों में बड़ी मात्रा में सरकारी पैसा खर्च नहीं करना चाहिए, जिनका निपटान समझा-बुझाकर और बुद्धिमानी से किया जा सकता है।’ इस मामले में मध्यस्थता का आवेदन 1986 में किया गया था और फैसला 1991 में सुनाया गया। लेकिन कॉरपोरेशन ने बकाया राशि का भुगतान नहीं किया। इसके बजाय उसने कई वर्षों तक आपत्तियां उठाईं। उच्च न्यायालयों ने भी सरकारी निगमों के खिलाफ कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया है।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) की एक याचिका पर कहा, ‘हमने पाया है कि इस अदालत को पीएसयू मध्यस्थता फैसलों के खिलाफ याचिकाएं दायर करके पाट देंगी, जो यह चाहती हैं कि मध्यस्थ के फैसले पर फिर से विचार किया जाए। इस तरह के मुकदमे मध्यस्थता अधिनियम बनाने के मकसद ही खत्म कर देते हैं… और वे मूल रूप से इस अदालत को मध्यस्थता अधिकरण के फैसले के खिलाफ अपील वाली अदालत में बदलना चाहते हैं। न्यायालय ने एनएचएआई पर ‘अनुचित आपत्तियों’ को लेकर जुर्माना लगाया।
इस फटकार के बावजूद एनएचएआई की पिछले एक सप्ताह एक अन्य मामले में और बदनामी हुई। इस मामले में उच्च न्यायालय ने कहा कि मध्यस्थता अधिकरण के फैसलों के खिलाफ बार-बार अपील, विशेष रूप से सरकारी कंपनियों की तरफ से दायर अपीलों से ‘मध्यस्थता की भूमिका नागरिक सुनवाई तक सीमित रह गई है।’ मुकदमों की फेहरिस्त बढ़ाने में सरकारी प्राधिकरणों काफी हद तक जिम्मेदार हैं। ये अदालत का वह कीमती समय बेकार कर रहे हैं, जिसका इस्तेमाल ज्यादा अहम विवादों को निपटाने में किया जा सकता है।
- अदालत के निशाने पर उस समय आयकर प्राधिकरण भी आए, जब दिल्ली उच्च न्यायालय ने एस सी जॉनसन प्रॉडक्ट्स को फिर से आकलन के लिए जारी चार नोटिस रद्द कर दिए। अदालत ने कहा कि ऐसी कोई सामग्री नहीं थी, जो कई वर्षों बाद पुनर्आकलन को जरूरी बनाती हो। बंबई उच्च न्यायालय ने पिछले महीने केंद्रीय उत्पाद शुल्क प्राधिकरणों पर 1 लाख रुपये का जुर्माना लगाया। प्राधिकरण को कहा गया कि वह याचिकाओं (सीसीई बनाम महिंद्रा ऐंड महिंद्रा) में तकनीकी मसले उठाने के बजाय अपीलीय न्यायाधिकरणों के फैसले को ‘ससम्मान स्वीकार’ कर ले।
- अदालत ने कहा कि राजस्व प्राधिकरणों ने गैर-जरूरी और तय समायवधि के बाद अपील दायर की हैं और अदालत का समय बरबाद किया है। इस व्यवहार के लिए दंडित किया जाना चाहिए। उच्चतम न्यायालय की फटकारों और सरकार के प्रयासों के बावजूद जो चीज खत्म होने का नाम नहीं ले रही है, वह सरकारी निगमों के बीच का झगड़ा है। नॉर्दर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड और हैवी इंजीनियरिंग कॉरपोरेशन मामले में अपने फैसले में अदालत उस हठ पर खेद जताया, जिसके साथ दोनों कई वर्षों से मुकदमा लड़ रही हैं।
हाल में केंद्रीय उत्पाद एवं सीमा शुल्क बोर्ड और राजस्व विभाग ने उच्च न्यायालयों में याचिका दायर करने के लिए 20 लाख रुपये जैसी मौद्रिक सीमाएं तय की हैं। ऐसे कदमों से बेकार के मुकदमों में मामूली ही कमी आई है। ऐसी स्थितियों के लिए कानूनी विभागों में कहावती आलस्य ही जिम्मेदार नहीं है। ऐसे मामलों में बड़ी मात्रा में पैसा भी इधर-उधर होता है, जिसका पता ऐसे मामलों से जुड़ी कानूनी कंपनियों से लगाया जा सकता है। अमूमन आम लोग कानूनी पेशे में ऐसे ही वकीलों से मिल पाते हैं, जो उन्हें हर्जाना दिलाने के लिए उनका मुकदमा लड़ते हैं। लेकिन जब मामले सरकारी मोटी रकम के होते हैं तो मुकदमेबाजी में सरकारी निगम घसीटे जाते हैं।
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