फेक न्यूज और उसके जाने-अनजाने पहलू (Fake news and unsolved facts and myths)

फेक न्यूज और उसके जाने-अनजाने पहलू

#Business_Standard

अचानक सबकी जुबान पर ‘फेक न्यूज’ शब्द ने जगह बना ली है। इससे पहले अक्सर जब समाचार पत्र, रेडियो या टेलीविजन पर हमें ऐसी कोई चीज देखने को मिलती थी तो हम चकित होकर यही कहते थे कि बात को कितना बढ़ाचढ़ाकर पेश किया गया है! अगर कोई व्यक्ति या संस्थान बार-बार ऐसा दोहराता था तो हम उससे कहते थे कि वह ऐसा प्रोपगंडा थोड़ा कम करे। लेकिन अब उसका स्थान फेक न्यूज ने ले लिया है। फेक न्यूज को लेकर चिंता का स्तर वही है जैसा कि एक जमाने में तपेदिक या चेचक को लेकर होती थी।

यह सिलसिला कहां से शुरू हुआ? इसका एक बड़ा हिस्सा अमेरिका से आया है जहां कई जानेमाने और प्रतिष्ठिïत समाचार पत्रों (और उनके डिजिटल संस्करणों) का यह मानना है कि अगर ऐसी छेड़छाड़ नहीं की गई होती तो अमेरिका डॉनल्ड ट्रंप जैसे व्यक्ति को अपना राष्ट्रपति नहीं चुनता क्योंकि देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा उन्हें पसंद नहीं करता।

क्या फेक न्यूज को लेकर यह आक्रामक सोच और व्यवहार अस्वाभाविक है या यह हमारे समय को दर्शाता है जहां प्रिंट मीडिया और टेलीविजन की प्रकृति ही ऐसी है कि वे मोबाइल/सोशल मीडिया की भड़काऊ प्रस्तुतियों को बढ़ावा देते हैं? आखिरकार सन 1950 के दशक के मध्य में जब टेलीविजन विश्व मंच पर नमूदार हुआ तब भी ऐसी ही बातें की जा रही थीं जैसी आज हो रही हैं। वांस पैकर्ड का द हिडन पर्सुएडर इसका उदाहरण था।

Use to manipulate Individuals

  • वांस पैकर्ड को मोटिवेशनल शोध से सख्त चिढ़ थी। उनका मानना था कि विनिर्माता इसका प्रयोग उपभोक्ताओं की कमजोरी का पता लगाने में करते हैं और इसका इस्तेमाल किसी उत्पाद की विशेषताओं के बारे में सचबयानी करने के बजाय उसकी अपील तैयार करने में किया जाता है।
  • उनके लिए मार्लबोरो सिगरेट इसका बड़ा उदाहरण थी जिसने अपनी सिगरेट की विशेषताओं के बारे में कोई बात करने के बजाय मर्दानगी को उसके प्रचार का माध्यम बनाया। उसने इसे हमारी छिपी आकांक्षाओं से जोड़कर पेश किया। सन 1956 के राष्ट्रपति चुनाव में फोकस समूहों और मोटिवेशनल शोध की ऐसी तकनीक को लेकर पैकर्ड की नाराजगी काफी हद तक 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव को लेकर चल रही चर्चा की याद दिलाती है जिसमें ट्रंप को राष्ट्रपति चुना गया।

यहीं पर एक नया तकनीकी- वाणिज्यिक खाका नजर आता है। यह एक तरह की चिंता पैदा करता है। सन 1950 के दशक में वांस पैकर्ड का समय ऐसा था जब विज्ञापन एजेंसियां पैदा हुई थीं और उनसे जुड़े लोग दावे करते थे कि उन्हें लोगों को चीजें खरीदने के लिए प्रेरित करने में ऐसी महारत हासिल है मानो वे ईश्वर हों। आज के दौर में भी अलगोरिदम के तकनीकी जानकार दावा करते हैं कि वे किसी भी पार्टी को वोट दिला सकते हैं या लोगों को चीजें खरीदने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

वांस पैकर्ड के युग की नाराजगी और आशंका हमारे समय में पूरी ताकत से इसलिए भी लौट आई है क्योंकि हमारे दौर का इंटरनेट उद्योग अपनी आजीविका विज्ञापन राजस्व से ही जुटा रहा है। एक बार यह बात स्थापित होने के बाद सारा खेल क्लिक पर आकर टिक गया। कुछ इंटरनेट उपक्रमों ने इस उम्मीद में भड़काऊ सुर्खियां लगानी शुरू कर दीं कि उन्हें पढ़कर इंटरनेट उपभोक्ता जिज्ञासावश क्लिक करेंगे और उन्हें राजस्व कमाने का अवसर मिलेगा। ऐसे में हम कह सकते हैं कि फेक न्यूज के विचार के पीछे क्लिक चाहने वालों की अहम भूमिका है।

यह बात भी समझने की है कि फेक न्यूज का तात्पर्य केवल तथ्यों को गलत ढंग से पेश करना नहीं है। वह तो फेक न्यूज का सबसे सहज स्वरूप है जिसका आसानी से पता लगाया जा सकता है। नए तरह की फ्रेमिंग में और जोखिम भरे तरीके अपनाए जा रहे हैं। उदाहरण के लिए बैंकिंग क्षेत्र के मौजूदा संकट को आसानी से सरकारी बैंकों के नाकारा प्रबंधकों के सर मढ़ा जा सकता है। इससे सरकारी बैंकों के निजीकरण का रास्ता आसान हो जाएगा। इसके अलावा इसे एक और तरीके से पेश किया जा सकता है। इसे भ्रष्ट उद्योगपतियों की वजह से उत्पन्न संकट भी बताया जा सकता है। इससे नए और सख्त भ्रष्टाचार विरोधी कानून और जुर्माने की मांग जोर पकड़ेगी।

अगर खबरों में बैंकों के निजीकरण वाला पहलू उठाया जाता है और उसे वाम रुझान वाले पत्रकार को दिया जाता है तो यह उसके लिए फेक न्यूज होगी। दूसरी ओर अगर सख्त कानून वाली दलील पर खबर बनाई जाए और उसे मुक्त बाजार के हिमायती समाचार वाचक को सौंपा जाए तो यह उसके लिए फेक न्यूज होगी। फेक न्यूज के कहीं अधिक व्यापक सामाजिक स्तर देखने को मिल सकते हैं। 19वीं सदी के ब्रिटेन की एक मान्यता इसका सटीक उदाहरण है। उस दौर के ब्रिटिश शासक मानते थे कि ब्रिटिश साम्राज्य अपने आर्थिक या सामरिक लाभ के लिए काम नहीं करता है बल्कि वह ऐसा इसलिए करता है कि भारत तथा ऐसे ही अन्य देशों में रहने वाले असभ्य लोग अपनी सरकार चलाने में सक्षम नहीं हैं। इसलिए ब्रिटेन उन पर शासन कर उन्हें सभ्य बना रहा। इस तरह औपनिवेशिक शासन को स्वीकार्य बनाने के लिए एक दलील तैयार की गई।

फेक न्यूज जिस गति से प्रसारित होती है वह भी आम जन के बीच बहस का विषय है। इसका एक उदाहरण तो यही है कि भारत में अचानक यह सुनने और पढऩे को मिल रहा है कि इंटरनेट आधारित मेसेंजर सेवाओं के कारण अचानक देश में बच्चा चोरी की घटनाएं बढऩे लगी हैं। परंतु राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर नजर डालें तो कुछ दिलचस्प बातें नजर आती हैं। वर्ष 2016 में देश में बच्चों के अगवा होने की 55,000 वारदात दर्ज की गई थीं। यह पिछले वर्ष से 20 फीसदी ज्यादा थी। ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि अपहरणकर्ताओं के खिलाफ अभियोग साबित करने की दर बहुत धीमी है और मामले वर्षों तक चलते हैं। बच्चों के अपहरण की अधिकतर वारदात हिंदी प्रदेशों, पूर्वी भारत और कर्नाटक में होती हैं। दुख की बात है कि अपहरण की दर बढ़ रही है और इन मामलों में सजा होने की दर कम हो रही है। क्या इन मामलों को कानून व्यवस्था की खराब स्थिति के रूप में चित्रित किया जाना चाहिए या इसका दोष भी इंटरनेट पर डाल दिया जाना चाहिए?

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