पुलिस की साख का सवाल (Question mark on police)

#Amar_Ujala

  • इन दिनों लगभग हर राज्य का पुलिस महकमा सोशल मीडिया पर त्वरित कार्रवाई की प्रशंसनीय पहल करता दिखता है, लेकिन पुलिस व्यवस्था से जुड़े ढेरों सवाल आज भी जस के तस हैं। दरअसल बीते दिनों संसद में गृह मंत्रालय ने एक रिपोर्ट का जिक्र किया, जिसके मुताबिक दिल्ली में 51 फीसदी लोगों ने अपराध को सबसे बड़ी समस्या माना। देश की राजधानी का ये हाल, मुल्क की बाकी तस्वीर भी साफ समझाता है।

Some fact

  • यूएन के मुताबिक, एक लाख की आबादी पर 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए, जबकि हमारे मुल्क में सिर्फ 151 हैं।
  • जमीनी हकीकत इससे भी बदतर है। मौजूदा करीब 19 लाख पदों में से करीब चार लाख पद खाली हैं। सबसे ज्यादा दो लाख पद अकेले उत्तर प्रदेश में। इसके अलावा पश्चिम बंगाल में 32 हजार, बिहार में 29 हजार, जबकि गुजरात में 25 हजार और झारखंड में 21 हजार पुलिस पद खाली हैं। वैसे ऐसे हालात रातों-रात नहीं बने। वर्षों से कमोबेश ऐसी ही बदहाली नजर आती है।

हमारा संविधान ‘पुलिस’ की जिम्मेदारी राज्यों को देता है, लेकिन मानो पुलिस सुधार किसी की प्राथमिकता में रहा ही नहीं। कुछ वक्त पहले कैग ने बताया कि राजस्थान में जरूरी हथियारों में 75 फीसदी, जबकि पश्चिम बंगाल में 71 फीसदी तक की कमी है। बीपीआरडी के मुताबिक राज्य पुलिस के पास 30 फीसदी वाहनों की कमी है। यानी न पुलिसकर्मी हैं, न हथियार हैं और न ही वाहन। वहीं एक रिपोर्ट के मुताबिक 663 भारतीयों पर एक पुलिसकर्मी है, जबकि देश के 20 हजार माननीयों के लिए औसतन तीन—तीन पुलिसकर्मी तैनात हैं। पुलिस की प्राथमिकता में आखिर है कौन-वीआईपी या आम आदमी?

  • शायद यही वजह है कि देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में लोगों ने मान लिया कि सुरक्षा सरकार के भरोसे नहीं, बल्कि खुद के भरोसे करनी होगी। यूपी पुलिस के पास करीब 2.25 लाख हथियार हैं, जबकि सूबे के लोगों के पास करीब पौने 13 लाख हथियार! पुलिस से करीब छह गुना ज्यादा। पूरे देश के करीब 33 लाख लाइसेंसी हथियारों का 38 फीसदी अकेले उत्तर प्रदेश में। आलम यह है कि देश में पुलिस वाले करीब 19 लाख हैं, जबकि निजी गार्ड करीब 70 लाख। किसी भी लोकतांत्रिक मुल्क में ये आंकड़ें यकीनन डराने वाले हैं।
  • हालांकि ऐसा नहीं कि पुलिस सुधार पर बात नहीं हुई। 1902-03 में अंग्रेजों ने भारतीय पुलिस आयोग का पहला प्रयास किया। 1977—81 तक नेशनल पुलिस कमीशन ने काम किया। शाह आयोग, रेबैरो कमेटी, पदमनाभैय्या कमेटी, मलिमथ कमेटी के साथ—साथ सोली सोराबजी के पुलिस एेक्ट का मसौदा और प्रकाश सिंह की अदालती लड़ाई तक काफी कुछ हुआ। लेकिन जमीनी स्तर पर हालात नहीं सुधर सके। पुलिस व्यवस्था को आज भी ब्रिटिश मानसिकता के चश्मे से ही चलाया जा रहा है।
  • यकीनन पुलिस विभाग की इस बदहाल तस्वीर के पीछे सरकारों की उदासीनता बड़ी वजह है। सरकारें अपने बजट का केवल तीन फीसदी ही पुलिस पर खर्च करती हैं। 2015—16 में पुलिस आधुनिकीकरण के लिए केंद्र ने 9,203 करोड़ रुपये दिए, लेकिन राज्य सरकारें उसका भी केवल 14 फीसदी ही खर्च कर सकीं। मोदी सरकार ने पुलिस सुधार के लिए तीन साल में 25,060 करोड़ रुपये की एक नई योजना का एलान किया। इसमें 18,636 करोड़ रुपये केंद्र के, जबकि 6424 करोड़ रुपये राज्यों के होंगे। उम्मीद की जाती है कि रकम खर्च हो सकेगी।  जाहिर है, पुलिस सुधार से जुड़े कई कदम जल्द उठाने होंगे। पुलिसकर्मियों को राजनीतिक निष्ठा जताने से बचना होगा, उधर नीति निर्माताओं को भी पुलिस को ‘फुटबॉल’ बनाने से बचना होगा। तब जाकर देश के 15 हजार 579 थानों की साख कायम हो सकेगी।

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