ईरान विवाद: भारत के लिए सीमित विकल्प
अमेरिकी हमले में ईरान के शीर्ष सैन्य कमांडर कासिम सुलेमानी की मौत के बाद से खाड़ी क्षेत्र में तनाव व्याप्त है। क्षेत्र में 30 सालों में सबसे ज्यादा तनाव की स्थिति देखी जा रही है। ईरान और खाड़ी मामलों के ज्यादातर विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसे हालात में भारत खुद को बेहद जटिल स्थिति में पा रहा है।
विशेषज्ञों का कहना है कि जितनी तेजी से इराकी संसद ने सभी अमेरिकी बलों को अपनी जमीन से बाहर जाने के लिए प्रस्ताव पारित किया और अमेरिका ने भी उतनी ही फुर्ती से यह घोषणा कर दी कि वह इराक पर प्रतिबंध लगाने के लिए तैयार है, ऐसे में तेजी से लिए गए ये फैसले गलत भी हो सकते हैं। लेकिन उनका कहना है कि विदेश मंत्री एस जयशंकर ने जिस तरह अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पिओ से बात की और सार्वजनिक तौर पर अमेरिकी कदम को लेकर चिंता जताई है, वैसे में भारत के लिए सुलेमानी की मौत के बाद इस क्षेत्र के भविष्य के घटनाक्रम को देखने के अलावा कोर्ई विकल्प बचता नहीं है।
हालांकि भारत ने इस घटनाक्रम पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए इस घटना के लिए जिम्मेदार अमेरिका का नाम नहीं लिया जिसने इस घटना को अंजाम दिया था जिससे ईरान से थोड़ी दूरी का अंदाजा मिलता है। वहीं चीन ने सीधे तौर पर अमेरिका का नाम दिया था। देश के कुछ ईरान विशेषज्ञों का यह तर्क है कि ईरान का नेतृत्व करने वाले कुछ लोग ऐसा जरूर सुनना चाहते होंगे। सुलेमानी अपने पद के मुकाबले बेहद ताकतवर थे और ऐसी चर्चा भी थी कि देश के शीर्ष नेता अयातुल्ला अली खमेनाई का एक आलोचक वर्ग उन्हें ईरान का राष्ट्रपति बनने के लिए समर्थन दे सकता है। हालांकि सुलेमानी खमेनाई के प्रति बेहद वफादार थे।
इस क्षेत्र में हस्तक्षेप करने का विकल्प बेहद सीमित है क्योंकि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के कार्यकाल के दौरान ही भारत अमेरिका के साथ मजबूती से खड़ा दिखने लगा जब भारत-अमेरिका नाभिकीय समझौता हुआ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रुझान भी अमेरिका की तरफ ही है क्योंकि हाल ही में उन्होंने एक तरह से यह घोषणा कर दी कि भारत चाहता है कि 'अगली बार ट्रंप सरकार'।
ईरान के पूर्व राजदूत के सी सिंह ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया कि संबंधों में बदलाव लाना बीते दिनों की बात है। उन्होंने बताया, 'सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और अमेरिका के साथ देश के राजनीतिक नेतृत्व की सरगर्मी देखी जा रही है। ऐसे में भारत के लिए यह संभावना खत्म हो गई है कि वह ईरान और अमेरिका के बीच शांतिदूत की भूमिका निभा पाए।'
भारत की ईरान और इसके पड़ोस में परिसंपत्ति है और वह इसे बचाना चाहता है। इसके अलावा 85 लाख भारतीय नागरिक खाड़ी क्षेत्र में रह रहे हैं और काम भी कर रहे हैं। अगर अमेरिका और ईरान के बीच तनाव बढ़ा तब देश के तेल एवं गैस के आयात पर असर पड़ेगा। ईरान के बंदरगाह चाबहार में निवेश पर भी संकट की स्थिति है जिसे तैयार करने में भारत मदद कर रहा है। इसके जरिये अफगानिस्तान से लेकर मध्य एशिया तक के लिए व्यापार मार्ग बनेगा। सुलेमानी की मौत के बाद की जो स्थिति है उस पर कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि राजनीतिक रूप से सुरक्षित लगने वाली जगह भी बेहद खतरनाक होती है।
विशेषज्ञों का कहना है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के कदम का कोई अनुमान नहीं लगा सकता है और उनकी नीतियों से यह अंदाजा मिलता है कि अमेरिकी प्रशासन ने सुलेमानी की मौत के बाद की रणनीति के बारे में संभवत: नहीं सोचा होगा।
भारत ने हाल के वक्त में ईरान के प्रति अपनी नाराजगी सार्वजनिक करनी शुरू कर दी। वहीं तेहरान देश के चाबहार बंदरगाह उद्यम में उतना सहयोग नहीं कर पा रहा था और इसने कश्मीर में कुछ 'अतिवादिता' को लेकर चिंता भी जाहिर की थी। हालांकि पहले सुलेमानी देश के सहयोगी रहे हैं और वह अफगानिस्तान में तालिबान के साथ वार्ताकार भी रहे हैं। लेकिन एक व्यापक भूराजनैतिक खेल में भारत के लिए अमेरिका एक तरजीही साझेदार है जबकि ईरान एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सहयोगी बना रहेगा।