दोस्ती का कारवां: भारत इजरायल

Relations between Israel and India are on a slow and protracted rise, After 1992 these relation has reached a new hight amd and personal chemistry between Benjamin Netanyahu and Narendra Modi giving this relation a new hight.


#Hindustan
पश्चिम एशिया के उलझे समीकरण किसी भी देश की विदेश नीति की कड़ी परीक्षा लेते हैं। अच्छी बात यह है कि भारत ने इस उलझन को काफी हद तक पार कर लिया है। इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की भारत यात्रा का कुलजमा संदेश यही है। 
    शीत युद्ध के दौर और गुटनिरपेक्षता की राजनीति ने भारत को कई दशक तक इजरायल से दूर रखा था। यहां तक कि दोनों में औपचारिक रिश्ते भी नहीं रहे। इसका जिम्मेदार भले ही आजकल तुष्टीकरण की राजनीति को ठहराया जाता है, लेकिन उस समय जो भी दबाव भारतीय राजनय पर थे, उसके चलते कोई भी सरकार इस नीति को बदल नहीं सकी थी। 
    कुछ लोग यह भी कहते थे कि ईरान और अरब देशों से होने वाला कच्चे तेल का आयात भी इसमें अपनी भूमिका निभाता था। 


Turning point in relation 1992 & 1999


इसे बदलने का साहस 1992 में प्रधानमंत्री नरसिंह राव की सरकार ने दिखाया था। हालांकि राव को उदारीकरण की नई बयार शुरू करने के लिए याद किया जाता है, लेकिन उन्होंने भारतीय विदेश नीति को जो दिया, वह भी कम नहीं है। उन्हीं के शासनकाल में इजरायल में भारतीय दूतावास खोला गया और भारत व इजरायल के औपचारिक रिश्तों की शुरुआत हुई। उसके पहले तक भारतीय पासपोर्ट पर लिखा होता था- ‘इजरायल और दक्षिण अफ्रीका के लिए मान्य नहीं’। राव के शासनकाल में यह वाक्य भारतीय पासपोर्ट से पूरी तरह हटा। बेंजामिन नेतन्याहू उस समय भारत यात्रा पर आए हैं, जब दोनों देशों के औपचारिक रिश्तों की रजत जयंती भी पूरी हुई है।उसके बाद से भले ही नई दिल्ली और तेल अवीव दोनों जगह ही सरकारें बदलती रहीं, लेकिन ये रिश्ते लगातार आगे बढ़ते रहे हैं।
    भारत के लिए यह दौर सीमाओं पर लगातार बढ़ते तनाव का भी रहा है और आतंकवाद के गहराते खतरे का भी। इन दोनों ही मोर्चों पर इजरायल का सहयोग भारत के बहुत काम आया है।
     भारत इस समय अपनी जरूरत के लिए हथियारों का सबसे ज्यादा आयात इजरायल से ही कर रहा है। इस मामले में इजरायल ने कभी न अमेरिका जैसी आनाकानी की है और न कभी यूरोपीय देशों जैसे नखरे ही दिखाए हैं। ऐसा भी सुनने में नहीं आया कि उसने इसके लिए भारत के सामने कड़ी राजनीतिक या राजनयिक शर्तें रखी हों। हथियार ही नहीं, तकनीक, उद्योग और कृषि के क्षेत्र में भारत के पास इजरायल से लेने के लिए बहुत कुछ है। यह भी कहा जाता है कि भारत के पास इजरायल से लेने लायक सबसे बड़ी चीज है, आत्मनिर्भरता की उसकी जिजीविषा। अपनी जरूरत के हिसाब से तकनीक और सुविधाओं को विकसित करने की जितनी मेहनत इजरायल ने की है, उतनी दुनिया के कम ही देशों ने दिखाई है।


दिलचस्प बात यह है कि इस बीच भारत ने फलस्तीन के सवाल पर अपने रुख को बहुत ज्यादा बदला भी नहीं है। यह पिछले दिनों फिर जाहिर हो गया, जब अमेरिका द्वारा यरुशलम को राजधानी की मान्यता देने के मसला संयुक्त राष्ट्र में उठा, तो भारत ने इसके खिलाफ वोट दिया। जाहिर है, भारत के इस रुख ने इजरायल को थोड़ा निराश तो किया होगा, लेकिन लंबे समय में इजरायल ने भारत की फलस्तीन नीति को एक सच की तरह स्वीकार भी किया है। इसके बाद भी अगर दोनों देशों के रिश्ते बढ़ रहे हैं, तो यह दोनों के राजनय की परिपक्वता का एक और उदाहरण है। रिश्तों का यह क्रम उस समय और मजबूत हुआ था, जब भारतीय प्रधानमंत्री मोदी ने इजरायल की यात्रा की थी। और अब इजरायल के प्रधानमंत्री की यात्रा बताती है कि रिश्तों का यह सफर किस तरफ जा रहा है। विश्व राजनीति में इस समय दोनों देश जहां खड़े हैं, दोनों के रिश्तों को आगे बढ़ना ही है।

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