Need of a National Security policy
हाल की कई घटनाओं के बाद ऐसा प्रतीत हो रहा है कि देश को एक समग्र राष्ट्रीय सुरक्षा नीति विकसित करने की आवश्यकता है। इस दिशा में पहली चार पक्षीय शुरुआत सन 2007 में देखने को मिली जब भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की नौसेनाओं ने संयुक्त अभ्यास किया था। बाद में भारत की तत्कालीन संप्रग सरकार ने चीन की संवेदनशीलता को देखते हुए इसमें हिस्सेदारी लेना बंद कर दिया। एक दशक बाद इन चारों देशों के अधिकारियों ने मनीला में बैठक की और अब यह समूह औपचारिक रूप ले चुका है। कई अन्य द्विपक्षीय और त्रिपक्षीय समूह हैं जहां भारत हिस्सेदार है। इन सबका उद्देश्य और इनके लक्ष्य अलग-अलग हैं।
Americal Policy and India
हर अमेरिकी राष्ट्रपत्ति राष्ट्रीय सुरक्षा नीति (एनएसएस) के तहत वैश्विक सुरक्षा को लेकर अपना नजरिया पेश करता है। अमेरिकी राष्टï्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने भी यही किया। उनकी बातों में चीन और रूस को साफ तौर पर संशोधनवादी और समस्या पैदा करने वाले देश बताया गया जो अमेरिकी हितों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। अब यह बात उसकी रक्षा नीति में भी नजर आने लगी है। वहां अमेरिका एशिया प्रशांत क्षेत्र में खुद को चीन और रूस के साथ प्रतिस्पर्धा में देख रहा है। भारत का अलग से उल्लेख नहीं है लेकिन जाहिर है वह इस क्षेत्र के उन अहम देशों में शुमार है जिनके साथ अमेरिका तालमेल से काम करना चाहेगा।
ट्रंप की एनएसएस भारत को असमंजस में डालती है क्योंकि उसमें भारत को उभरती हुई वैश्विक शक्ति और साझेदार देश कहा गया है। देश के अधिकांश लोगों के लिए यह प्रसन्नता की बात होगी लेकिन हमें इसके अर्थ का विश्लेषण भी करना होगा। भारत को एक ऐसी शक्ति का दर्जा दिया गया है जो वह फिलहाल नहीं है। दूसरा, रूस और चीन को स्पष्ट तौर पर अमेरिकी हितों के खिलाफ माना गया है लेकिन एनएसएस का अनुमान यह मानकर चल रहा है कि भारत भी इससे समान रूप से प्रभावित है। यह सही नहीं है। आर्थिक दृष्टि से देखें तो हमारा जीडीपी चीन के जीडीपी के पांचवें और अमेरिका के जीडीपी के 10वें हिस्से के बराबर है। भारत और अमेरिका के बीच कारोबारी रिश्ते, चीन और अमेरिका के कारोबारी रिश्तों के पासंग में भी नहीं हैं। ऐसे में यह सोचना कि दोनों किसी जंग में शामिल होंगे, ठीक नहीं है।
दूसरी ओर, चीन हमारा निकटस्थ पड़ोसी है। हमारी सीमा का बड़ा हिस्सा उससे लगता है और दोनों के बीच सैन्य संघर्ष की आशंका को पूरी तरह दरकिनार नहीं किया जा सकता है। एक अन्य स्तर पर रूस लंबे समय से भारत का मित्र है और हमारे हथियारों का बड़ा हिस्सा वहां से आता है। इसमें परमाणु क्षमता संपन्न पनडुब्बी और देसी हथियार निर्माण में सहायता शामिल है। हमारे सामरिक हित ईरान से भी जुड़े हैं जो ट्रंप को भले नापसंद हो लेकिन उसके पास ऊर्जा भंडार हैं और वह मध्य एशिया तक पहुंच आसान करता है। संक्षेप में कहें तो अमेरिका की एनएसएस में व्यक्त योजना में हम किस तरह ठीक बैठते हैं वह स्पष्ट नहीं है। आतंकवाद से जुड़ी हमारी दिक्कतें इसके अलावा हैं।
ऊपर हमने जिन चार देशों का जिक्र किया उनका अघोषित साझा लक्ष्य है चीन को थामना। जबकि अन्य तमाम परिदृश्य अनिश्चितताओं से भरे हुए हैं। अमेरिका की बात करें तो चीन साफ तौर पर उसकी वैश्विक श्रेष्ठता को चुनौती दे रहा है। भारत के लिए भी वह प्रमुख चुनौती है। इससे एक तरह की सुसंगतता बनती है लेकिन वह दूर की कौड़ी है क्योंकि चीन की सीमा अमेरिका से नहीं लगती और भारत अमेरिका के लिए चीन की आर्थिक महत्ता की बराबरी नहीं कर सकता। यानी भारत के वैश्विक ताकत बनने की बात काफी हद तक शाब्दिक है। इसका ताल्लुक शायद भारत की रक्षा खरीद में अमेरिकी रुचि से है। 1,500 करोड़ डॉलर का यह कारोबार अगले 5-6 साल में आसानी से 2,500 करोड़ डॉलर तक पहुंच सकता है। ऐसे में इस बाजार को लुभाना समझ में आता है। भारत हिंद महासागर क्षेत्र की सबसे बड़ी और सैन्य क्षमता संपन्न शक्ति है ऐसे में उसे साझेदार बताना समझ में आता है।
भारत के मुद्दे अलग हैं। अमेरिका के साथ मजबूत रक्षा रिश्ते जहां उसे अच्छी सैन्य क्षमताओं से लैस करेंगे, वहीं चीन के साथ हमारे समीकरणों के लिहाज से भी यह रिश्ता अहम है। चीन के साथ हमें विवाद नहीं सहयोग चाहिए। पाकिस्तान और अन्य दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों के साथ संबंध भी पूरे गणित को जटिल करते हैं। रूस के साथ रिश्तों को अमेरिका नकारात्मक अर्थों में देखता है लेकिन ये भी हमारे लिए अहम हैं। हाल के वर्षों में सैन्य संबंध कायम रहने के बावजूद एक हद तक भारत और रूस के रिश्ते प्रभावित हुए हैं। उधर रूस और चीन के बीच के रिश्तों में हाल के वर्षों में करीबी आई है। दक्षिण चीन सागर की बात करें तो हाल ही में दिल्ली में आसियान देशों के नेताओं के जुटाव और समुद्री सुरक्षा पर जोर के बावजूद सभी देश उस क्षेत्र को लेकर हमारे रुख के साथ नहीं हैं। उनमें से कई देश ऐसे हैं जिनके लिए चीन सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार है। कहने का अर्थ यह है कि उभरती विश्व व्यवस्था में तमाम अनिश्चितताएं हैं जो भारत की सुरक्षा को प्रभावित कर सकती हैं और जिनका प्रबंधन करने की दिशा में हमें सावधानीपूर्वक आगे बढऩा होगा।
इस परिदृश्य में एक विरोधाभासी प्रश्न उत्पन्न होता है। पहली बात, एशिया प्रशांत क्षेत्र में चीन को थामना आवश्यक है और इसके पक्ष में अपने तर्क हैं। वहीं दूसरी ओर, चीन एक ऐसी बड़ी ताकत भी है जिसके साथ तमाम उभरते देश रिश्ता रखना चाहेंगे। भारत की बात करें तो ट्रंप की एनएसएस से ऐसे सवाल उठते हैं जिनका सामना हमने अब तक नहीं किया है। एक दुविधा यह भी है कि एक पुराने मित्र से रिश्ते बरकरार रखते हुए एक ऐसे नए देश से रिश्ते कैसे कायम हों जबकि दोनों एक दूसरे के खिलाफ हों। दूसरी दुविधा है संभावित शत्रु के साथ संवाद।
हमारे आसपास कई ऐसे देश हैं जिनसे हमारी सुरक्षा चिंताएं जुड़ी हुई हैं। शतरंज की सी इस बिसात पर कैसे आगे बढ़ा जाए और उपयुक्त क्षमताओं का विकास कैसे हो, नीति निर्माताओं के सामने यह एक अहम प्रश्न है। अधिकांश बड़ी शक्तियां अपनी जरूरतों के मुताबिक नीतियां बनाकर सामने रखती हैं लेकिन अब तक भारत ऐसा करने से बचता रहा है। शायद यह भी एक वजह है कि हम अपने हितों की रक्षा के लिए उचित नीतियां नहीं बना पाए हैं। अब समय आ गया है कि हम इसमें सुधार करें
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