कोरोना एक चिकित्सा जगत की चुनौती के साथ साथ राजनीति, समाज, मनोविज्ञान, अर्थव्यवस्था सभी क्षेत्रों को प्रभावित कर रहा है।
तकनीकी विकास के बावजूद आज विश्व में 1 मिलियन से ज्यादा लोग इससे संक्रमित हो चुके हैं और 58 हजार से अधिक मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं।
चीन, यूरोप, अमेरिका कोरिया, जापान से आगे आज यह महामारी विश्व के 200 से अधिक देशों और क्षेत्रों में फैल चुकी है।
राजनीति विज्ञान के विद्यार्थी होने के नाते मैं कोरोना के राजनीतिक परिदृश्य पर दिख रहे या आगामी समय में संभावित परिवर्तन पर अपने विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
विचारों की इस श्रंखला को तीन भागों में विभाजित किया गया है----
1 अंतरराष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन,
2 बदले परिप्रेक्ष्य में भारत का अंतरराष्ट्रीय सम्बंध या अंतरराष्ट्रीय राजनीति के प्रति बदलाव और
3 भारत के परिप्रेक्ष्य में आंतरिक राजनीति पर विचार
अंतरराष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन----
1 परंपरागत रूप में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के मुद्दों का अध्ययन और विश्लेषण यथार्थवादी/उदारवादी/मार्क्सवादी विचारधाराओं के तहत किया जाता था किंतु कोरोना की महामारी से उपजे परिदृश्य को किसी एक विचारधारा के तहत समझा जाना सहज नहीं है।
2 कोरोना महामारी की व्यापकता ने एक बार फिर यह स्थापित किया है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रीय हित सर्वाधिक प्रभावी हैं । महामारी से प्रभावित देश जिस तरह अपने संसाधनों से इसका सामना कर रहे हैं उससे स्पष्ट होता है कि राष्ट्र राज्य की राजनीति का मूल राष्ट्रीय हित ही हैं जिन्हें साधना ही राजनीतिक व्यवहार का मूल लक्ष्य है।
यदि यह तथ्य प्रमाणित होता है कि वायरस का फैलाव चीनी रणनीति के तहत हुआ है तो माना जा सकता है कि आज भी अंतर्राष्ट्रीयता की तुलना में राज्य राष्ट्रीय हितों को ही प्राथमिकता देते हैं।
3 शक्ति संतुलन अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सदैव एक प्रभावी अवधारणा रही है और महामारी के असर से उबरने के बाद निश्चित रूप में विश्व राजनीति का संतुलन नए आयाम धारण करेगा जिसमें शक्ति के परंपरागत केंद्र बदल कर निश्चित रूप में नए केंद्र उभरेंगे जो स्वयं को महामारी के दुष्प्रभावों से बचाकर नई वैश्विक राजनीति में नया शक्ति संतुलन कायम करेंगे।
4 कोरोना की महामारी ने निश्चित रूप में अमेरिका के विश्व राजनीति में स्थान को कमजोर किया है और इसके साथ साथ इसने अमेरिकी नेतृत्व में संचालित वैश्विक संस्थाओं पर भी प्रश्न चिन्ह लगा दिये हैं।
अमेरिकी अर्थव्यवस्था, राजनीति, समाज, राष्ट्रपति का पद, वैश्विक मुद्दों पर अमेरिका का दृष्टिकोण, विश्व का अमेरिका को देखने का नजरिया इन सभी पहलुओं पर अमेरिका की स्थिति में जो बदलाव अब आने वाला है वह अभूतपूर्व है और ऐसा बदलाव अमेरिका ने विश्व युद्धों के दौर में भी महसूस नहीं किया होगा। पूर्व में हर बार अमेरिका और मजबूत बन कर उभरा है लेकिन कोरोना के प्रकोप ने अमेरिका को निश्चित रूप में कमजोर बनाया है।
5 अमेरिका के साथ साथ यूरोपीय देश इटली, ब्रिटेन, स्पेन आदि का भविष्य भी बहुत सुनहरा नहीं प्रतीत होता। विकास के पैमाने पर उच्च होने के बावजूद यूरोप इस महामारी के आगे घुटने टेक बैठा है। यूरोपीय यूनियन के भविष्य के बारे में इस परिप्रेक्ष्य में किसी भी प्रकार की टिप्पणी एक अधूरा अध्ययन ही मानी जानी चाहिए।
6 महामारी के बावजूद खुद को कोई देश यदि जल्द से जल्द पटरी पर ला पाया है तो वह चीन है। चीन जहाँ से बीमारी शुरू हुई, इसे नियंत्रित करने का दावा करने की स्थिति में है। वहाँ अर्थव्यवस्था पुनः सही राह पर आ चुकी है, उत्पादन पुनः शुरू हो गया है, यहाँ तक कि चीन विश्व के अनेक देशों को निर्यात भी शुरू कर चुका है औऱ स्वयं अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी माना है कि चीन की अर्थव्यवस्था इस महामारी से व्यापक रूप में प्रभावित नहीं होगी।
इस सबके माध्यम से चीन ने इस अंतरराष्ट्रीय निर्वात में खुद को स्थापित करने की कोशिश की है, स्पेन को मेडिकल इक्विपमेंट निर्यात किये हैं, इटली को चिकित्सकीय मदद की है और शक्ति संतुलन का पलड़ा प्रारंभिक रूप में चीन के पक्ष में झुकता प्रतीत होता है। आगामी समय में अमेरिका प्रभुत्व तो कमजोर होना है लेकिन इस बिंदु पर अभी भी मतांतर है कि क्या वास्तविकता में चीन एक जिम्मेदार राष्ट्र की भांति विश्व नेतृत्व के लिए तैयार होगा या विश्व राजनीति संघर्ष, तनाव और शक्ति राजनीति के उलझाव में ही उलझी रहेगी।
अभी यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि यह चीन के राजनीतिक नेतृत्व की कोई छद्म रणनीति थी या नहीं लेकिन यदि वायरस का फैलाव और इसका प्रसार सुनियोजित तरीके से किया गया है तो फिर विश्व राजनीति पुनः एक अधर झूल की स्थिति में ही होगी।
7 कोरोना वायरस का प्रसार यदि सुनियोजित तरीके से हुआ है तो यह जैविक आतंकवाद के नए रूप में प्रकट हो रहा है और इसके प्रसार का परिणाम अंतरराष्ट्रीय सम्बंधों को नकारात्मक तरीके से प्रभावित करेगा। आतंकवाद के परंपरागत तरीके से भिन्न यह रूप राज्यों की सुरक्षा चुनौतियों को बढ़ाएगा क्योंकि परमाणु बम, मिसाइल निर्माण या भारी विनाश के हथियारों के विकास से इस तरह की सुरक्षा चिंताओं का समाधान नहीं किया जा सकेगा।
8 इस महामारी ने सुरक्षा की परंपरागत परिभाषा पर भी प्रश्न चिन्ह लगाये हैं क्योंकि सीमाओं की सुरक्षा की चुनौती ना होकर मानवीय सुरक्षा का प्रश्न महत्वपूर्ण हो गया है और जो राज्य मानवीय सुरक्षा को प्राथमिकता प्रदान कर रहे हैं वे ही भावी राजनीति में अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर सफल माने जा सकते हैं।
9 वर्तमान भूमंडलीकरण के दौर में इस महामारी के प्रसार ने सम्पूर्ण अवधारणा पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिए हैं क्योंकि जटिल अंतर्निर्भरता की दुनिया में ही एक ओर बीमारी का वैश्विक प्रसार हुआ तो इसके समाधान का एकमात्र रास्ता Distancing के रूप में सामने आया है जिसमें वायु यातायात पर प्रतिबंध, लोगों के आवागमन पर रोक लगा दी गई है और अर्थव्यवस्था के खुलेपन की संकल्पना भी संदेहास्पद हो गई है। यह बिंदु महत्वपूर्ण है कि चीन के पड़ोसी उत्तर कोरिया में इस महामारी का असर नहीं है क्योंकि उत्तर कोरिया पूर्व से ही अपने आप को विश्व से अलग थलग किये हुए है ।महामारी के प्रकोप ने एक नए किस्म के संरक्षणवाद को जन्म दिया है जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था का सम्पूर्ण ढांचा चरमरा सकता है जैसा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने माना है कि यह 2008 से भी व्यापक मंदी का कारण बन सकता है।
10 महामारी के फैलाव ने मानवाधिकारों को भी चुनौती दी है क्योंकि स्वास्थ्य सेवाओं में कमियों के चलते इटली जैसे देश वृद्ध जनसंख्या को इलाज उपलब्ध कराने में समर्थ नहीं रहे हैं, यही हाल अमेरिका का है और यदि प्रभावी नियंत्रण समय रहते नहीं हो पाता है तो यह वैश्विक जनांकिकीय आँकड़ों को बदल देगा।
11 मानवाधिकारों की परिचर्चा के साथ ही साथ नारीवादी परिप्रेक्ष्य और मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य में भी इस महामारी के प्रभावों का अध्ययन किया जाना अनिवार्य होगा क्योंकि विकासशील देशों में इस महामारी ने श्रमिक वर्ग और महिला वर्ग को अत्यधिक प्रभावित किया है और इस सब ने विकास रणनीति पर भी नए प्रश्न उठाये हैं कि क्या वास्तव में उदारीकरण, निजीकरण का बढ़ना, ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन, प्राथमिक क्षेत्र को वरीयता न मिलना आदि इस तरह की चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में कितना तार्किक है !
12 महामारी के सकारात्मक पक्ष में यदि सोचें तो इससे जनित लॉक डाउन और विविध मानवीय गतिविधियों की रोकथाम ने पर्यावरण को एक राहत प्रदान की है जो अंतरराष्ट्रीय पर्यावरणीय वार्ताकारों को नए जलवायु समझौतों पर विचार करने को परिस्थिति उपलब्ध कराएगा । इस सबमें विकसित विकासशील देशों के परंपरागत विवाद के बिंदु क्या मोड़ लेते हैं यह भविष्य के गर्त में ही छुपा हुआ है।
13 महामारी की भयावहता ने अंतरराष्ट्रीय सहयोग की जरूरतों को भी रेखांकित किया है, क्यूबा जैसे देश इटली का सहयोग कर रहे हैं, विश्व बैंक ने भी अल्प विकसित और विकासशील देशों को वित्तीय मदद का आश्वासन दिया है क्योंकि यह स्पष्ट है कि कोई भी देश अपने संसाधनों के दम पर इस आपदा के निराकरण में समर्थ नहीं है अतः अंतरराष्ट्रीय राजनीति को पुनः उदारवाद, प्रकार्यवाद के चश्मे से फिर से देखना होगा।
निश्चित रूप में इस महामारी ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में नवीन आयाम स्थापित किए हैं और मेरा मत है कि राजनीतिक विश्लेषक और नेतृत्व कर्ता इसके परिप्रेक्ष्य में अंतरराष्ट्रीय राजनीति को पुनर्परिभाषित करेंगे।
लेख की अगली कड़ी में मैं बदलते परिदृश्य में भारत का अंतरराष्ट्रीय संबंध और उससे अगली कड़ी में भारत की आंतरिक राजनीति के अध्ययन की कोशिश करूँगा।
यह लेख मेरे साथी Vijay Prakash जी से प्रेरित होकर लिखा गया है।
क्रमशः......
Regards,
गौरव जैन
असिस्टेंट प्रोफेसर,
राजनीति विज्ञान।