UN: Big problem funding
संयुक्त राष्ट्र सुधार का मामला जहां पिछले कई वर्षों से लंबित है, वहीं धन की कमी भी संयुक्त राष्ट्र के लिए एक गंभीर चुनौती बनती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र के पास आवर्ती व्यय के लिए तो धन की कमी है ही, अनेक ऐसी परियोजनाओं और कार्यक्रमों के लिए भी धन की कमी है, जहां सदस्य-देश संयुक्त राष्ट्र से उम्मीदें लगाए बैठे हैं। अभी कुछ दिन पहले ही संयुक्त राष्ट्र ने आगाह किया कि लीबिया में मानवीय सहायता के लिए वित्तीय इंतजामों की कमी है, जिससे उसके अभियानों पर असर पड़ सकता है।
Ø इस वक्त UN को 6.85 करोड़ डॉलर की जरूरत है। संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी का कहना है कि 3.9 करोड़ डॉलर की राशि अब तक उसे मिली है और उसे सही तरीके से खर्च कर दिया गया है।
Ø एजेंसी का कहना है कि लीबिया में हमारे पास पर्याप्त धन नहीं है। ऐसे में युद्ध की वजह से बेघर हुए हजारों लोगों की मदद प्रभावित होगी। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक बीती 13 अप्रैल के बाद से 5,13,129 लोग देश से बाहर जा चुके हैं। ज्यादातर लोगों ने मिस्र और ट्यूनीशिया में शरण ली है। इस तरह धन की कमी के कारण संयुक्त राष्ट्र लीबिया में समुचित मानवीय सहायता उपलब्ध नहीं करा पा रहा
Funding crisis before
इसके पूर्व धन के कमी के कारण संयुक्त राष्ट्र को सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में भी कठिनाई का सामना करना पड़ा था। सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों में सर्वप्रमुख था भुखमरी के शिकार और गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या आधी कर देना। पर धन की कमी के कारण इन लक्ष्यों को पाना कठिन बना रहा है। शिशु मृत्यु दर को कम करने और प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा देने जैसे लक्ष्य भी अभी कोसों दूर हैं। ये लक्ष्य वर्ष 2000 के सहस्राब्दी सम्मेलन में तय किए गए थे। हाल ही में अंतरराष्ट्रीय सहायता एजेंसी ‘ऐक्शन एड’ ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा कि दुनिया अपना वादा निभाने में विफल साबित हो रही है। उसका कहना है कि भूख की असल वजह खाद्यान्न की कमी नहीं बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है। ऐसे में अब पुन: संयुक्त राष्ट्र के शांति-स्थापना जैसे अति महत्त्वपूर्ण कार्यों का भी धन की कमी से रुक जाना संपूर्ण विश्व के लिए गंभीर चिंता का विषय है। अमेरिका जैसे शक्तिशाली देशों द्वारा धन नहीं दिए जाने के कारण इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र के बजट में पांच फीसद अर्थात 28.6 करोड़ डॉलर की कटौती देखी जा सकती है। ट्रंप कई मौकों पर संयुक्त राष्ट्र के बजट में कटौती की बात कह चुके हैं। अब अमेरिका ने ‘फिजूलखर्ची’ का हवाला देते हुए इस वैश्विक संस्था के बजट में पांच फीसद की कटौती मंजूर कराई है। संयुक्त राष्ट्र के बजट में अमेरिका की हिस्सेदारी सबसे अधिक 22 फीसद है। संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि बजट में कटौती का असर सभी क्षेत्रों में होगा। संयुक्त राष्ट्र महासभा एक बार में दो साल का बजट पारित करती है। लेकिन वर्ष 2020 से परीक्षण आधार पर सालाना बजट की प्रणाली लागू की जाएगी। संयुक्त राष्ट्र के सामान्य बजट में विभिन्न देशों के योगदान का एक जटिल फार्मूला है, जिसमें प्रतिव्यक्ति आय और सकल घरेलू उत्पाद के आधार पर गणना की जाती है। भारत का संयुक्त राष्ट्र के बजट में योगदान फिलहाल 0.737 फीसद है, लेकिन भविष्य में अर्थव्यवस्था में सुधार पर इस योगदान में बढ़ोतरी हो सकती है।
Reform in Security Council
सुरक्षा परिषद में सुधार का मसला 1993 से ही संयुक्त राष्ट्र के एजेंडे में है। संयुक्त राष्ट्र का अस्तित्व ही सुरक्षा परिषद पर आधारित है। उसके सारे कार्यक्रम तब तक कार्यरूप नहीं ले सकते जब तक सुरक्षा परिषद की उस पर स्वीकृति न हो। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र का बजट भी सुरक्षा परिषद के अधीन है। उसकी स्वीकृति के बिना बजट के लिए न तो धन की आपूर्ति हो सकती है और न ही तमाम बिखरे कार्य ही पूरे किए जा सकते हैं। जब संयुक्त राष्ट्र का गठन हुआ था, तब इसके 51 सदस्य थे, पर अब सदस्य-संख्या 193 हो चुकी है। ऐसे में सुरक्षा परिषद के विस्तार की अपरिहार्यता को समझा जा सकता है। इस बीच में केवल 1965 में सुरक्षा परिषद का विस्तार किया गया। मूल रूप में इसमें 11 सीटें थीं- 5 स्थायी और 6 अस्थायी। वर्ष 1965 के विस्तार के बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कुल 15 सीटें हो गर्इं, जिनमें 4 अस्थायी सीटों को जोड़ा गया, लेकिन स्थायी सीटों की संख्या पूर्ववत ही रही। 1965 के बाद से सुरक्षा परिषद का विस्तार नहीं हुआ, जबकि सदस्य-देशों की संख्या 118 से बढ़ कर 193 हो गई। सुरक्षा परिषद में प्रतिनिधित्व के मामले में जहां तक स्थायी सदस्यों (चीन, फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका, रूस) का सवाल है, यह न तो भौगोलिक दृष्टि से आनुपातिक है और न ही क्षेत्रफल तथा संयुक्त राष्ट्र की सदस्य-संख्या या आबादी की दृष्टि से। इस तथ्य के बावजूद कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का पचहत्तर फीसद कार्य अफ्रीका पर केंद्रित है, इसमें अफ्रीका का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। लिहाजा, अफ्रीकी देशों का एक गुट ‘सी-10’ किसी अफ्रीकी देश की स्थायी सदस्यता की वकालत कर रहा है। इस गुट का भी कहना है कि अंतरराष्ट्रीय संघर्ष की स्थितियों में सुरक्षा परिषद समुचित भूमिका नहीं निभा पाता है। महाशक्तियों में मतभेद की स्थिति में वीटो भी अपनी प्रासंगिकता खोता जा रहा है।
भारत सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिए जी-4 देशों के प्रस्ताव का समर्थन करता है। इस जी-4 में भारत, जर्मनी, ब्राजील और जापान शामिल हैं। सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी को निम्न कसौटियों से समझा जा सकता है। एक तो यह कि लोकतांत्रिक, शांतिपूर्ण परमाणु शक्तिसंपन्न राष्ट्र होना। भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। दूसरे, विशाल जनसंख्या और विश्व में व्यापक प्रतिनिधित्व। भारत दुनिया में दूसरा सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश है। ऐसे में भारतीय प्रतिनिधित्व के बिना सुरक्षा परिषद में संपूर्ण वैश्विक प्रतिनिधित्व का सपना अधूरा ही रहेगा। तीसरे, विश्व-अर्थव्यवस्था में प्रमुख स्थान होना और विश्व की समृद्धि में साझेदारी। भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में एक है; साथ ही विश्व की समृद्धि में भारत की भूमिका अग्रगण्य है। चौथे, संयुक्त राष्ट्र के शांति-प्रयासों में व्यापक सहयोग। अभी भारत के सात हजार जवान संयुक्त राष्ट्र के शांति-प्रयासों में शामिल हैं। संयुक्त राष्ट्र शांति मिशन के सैनिकों में भारत का तीसरा सबसे बड़ा योगदान है। पांचवां, प्राचीन संस्कृति और सांस्कृतिक धरोहर वाला देश होने के साथ-साथ भारत आत्मनिर्भर, शक्तिसंपन्न और अपनी एकता, अखंडता, सार्वभौमिकता की रक्षा करने में सक्षम देश है।
सुरक्षा परिषद में जर्मनी, ब्राजील और जापान की भी स्थायी सदस्यता का भारत समर्थन करता है। संयुक्त राष्ट्र के नियमित बजट में जापान दूसरा सबसे बड़ा योगदानकर्ता देश है, जबकि इस तरह के योगदान में जर्मनी का तीसरा स्थान है। ऐसे में जर्मनी और जापान की दावेदारी को समझा जा सकता है। लातिन अमेरिका में ब्राजील न केवल क्षेत्रफल बल्कि आबादी और अर्थव्यवस्था के लिहाज से भी सबसे बड़ा देश है। यही कारण है कि ब्राजील सहित संपूर्ण जी-4 की दावेदारी का भारत समर्थन करता है। जी-4 के अतिरिक्त, इटली के नेतृत्व में ‘यूनाइटिंग फॉर कंसेंसस’ भी सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की मांग करता है। इसके अलावा सिंगापुर, स्विट्जरलैंड, कोस्टारिका आदि देशों का एक छोटा समूह ‘स्मॉल-5’ सुरक्षा परिषद में पारदर्शिता की मांग कर रहा है।
संयुक्त राष्ट्र की क्षमता में बढ़ोतरी के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का विस्तार अपरिहार्य हो गया है।