भारत और चीन के बीच अंतर पाटना है मुश्किल

  1. भारत और चीन के बीच अंतर पाटना है मुश्किल
  • यदि उभरते बाजारों में आने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए और विश्व बैंक के विभिन्न कारोबारी माहौल सूचकांकों पर दृष्टि डाली जाए तो निवेश के वांछित ठिकाने के रूप में भारत के कमजोर प्रदर्शन का अंदाजा लग जाता है। इसके पीछे कई वजह गिनाई जाती हैं। मसलन लालफीताशाही, भ्रष्टाचार, नीतिगत अनिश्चितता, अपर्याप्त व्यक्तिगत सुरक्षा वगैरह। परंतु भारत में रहने और काम करने वाले कारोबारी और संभावित निवेशक हमें कैसे देखते हैं? अमेरिका और चीन के बीच छिड़े कारोबारी युद्घ के कारण यदि विनिर्माता कोई नया ठिकाना तलाशते हैं तो क्या भारत दुनिया की नई फैक्टरी बन सकता है?

  • भारत के आकार को देखते हुए कहा जा रहा है कि भारत आदर्श रूप से इसका लाभ उठाने की स्थिति में है। परंतु इसके बजाय हमारा प्रदर्शन अपेक्षाकृत छोटे एशियाई देशों की तुलना में भी कमजोर है। अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप द्वारा व्यापार युद्घ की शुरुआत के बाद जनवरी में चीन के एक आपूर्ति शृंखला सलाहकार ने वैकल्पिक निवेश केंद्र के रूप में भारत और वियतनाम की संभावनाओं पर विचार करते हुए एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था, 'इंडिया ऑर वियतनाम: हू इज द न्यू चाइना?' लेखक ने कॉर्पोरेट शैली के बिंदुवार लेख में निष्कर्ष दिया था कि वियतनाम भारत की तुलना में अधिक वांछनीय है। गौरतलब है कि वियतनाम की अर्थव्यवस्था का आकार भारतीय अर्थव्यवस्था के 10वें हिस्से के बराबर है। लेखक ने यहां तक लिखा कि निकट भविष्य में भारत के अगला चीन बनने की कोई संभावना नहीं है। जानकारी के मुताबिक वाणिज्य मंत्रालय कर छूट समेत तमाम योजनाएं बना रही है ताकि कारोबारी युद्घ से परेशान कंपनियों और निवेशकों को भारत की ओर मोड़ा जा सके। ऐसे में यह आकलन विवेक सम्मत है।

  • इस आलेख में सबसे बड़ा खुलासा यह था कि वियतनाम की तुलनात्मक श्रेष्ठता उस पारंपरिक मान्यता के कारण नहीं है जिसके तहत माना जाता रहा है कि श्रम की लागत पारंपरिक सफलता हासिल करने में अहम है। इसके विपरीत वियतनाम ने वर्ष 2015 में ही विनिर्माण क्षेत्र की औसत वेतन दर के मामले में भारत पर बढ़त कायम करनी शुरू कर दी थी। वियतनाम के भारत पर बढ़त बनाने के पीछे दो अहम वजह हैं: बुनियादी शिक्षा का स्तर और महिला कर्मचारियों का अनुपात। वियतनाम के जीवंत और पुरातन शहरों को भारत के भीड़भाड़ और शोरगुल वाले शहरों की तुलना में बेहतर माना जा सकता है। वहां सुव्यवस्थित और बेहतर प्रबंधन वाले सरकारी स्कूल हैं। वियतनाम में 2001 में ही अनिवार्य शिक्षा का कानून लागू कर दिया गया था, भारत के शिक्षा का अधिकार अधिनियम से आठ वर्ष पहले।

  • ऐसे वक्त पर जबकि हमारे देश का सत्ताधारी प्रतिष्ठान हिंदी को इकलौती राष्ट्रभाषा बनाने को प्रतिबद्घ नजर आ रहा है, वियतनाम प्राथमिक विदेशी भाषा के रूप में अंग्रेजी पढ़ाता है जबकि चीनी भाषा, चार द्वितीयक भाषाओं में शामिल है। दूसरे शब्दों में औसत युवा वियतनामी अमेरिका और चीन दोनों देशों के निवेशकों से बातचीत कर सकता है। देश के शैक्षणिक पाठ्यक्रम में अंग्रेजी के घटते कद के संदर्भ में भारत की बहुचर्चित विविधतापूर्ण संस्कृति को लेकर लेखक की राय को उद्धृत करना उचित होगा, 'भारत के विभिन्न राज्यों में अलग-अलग भाषा बोलने वाले लोग रहते हैं। उनकी भाषा और संस्कृति अलग होने से कारोबारी प्रबंधन एक सरदर्द बन जाता है, इतना ही नहीं 14 आधिकारिक भारतीय भाषाएं (वास्तव में 22) होने के कारण भारतीयों के लिए अलग-अलग राज्यों में संवाद करना काफी मुश्किल है। अगर वे अंग्रेजी नहीं बोलते हैं तो इस बात की संभावना बहुत कम है कि वे एक दूसरे को समझने का तरीका तलाश पाएंगे।'

  • जहां तक श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी की बात है, लेखक ने यह नहीं बताया कि किसी निवेशक के निर्णय में यह इतना अहम कारक क्यों है? शायद महिलाओं की अधिक भागीदारी चीन की शैली में बनने वाली विशालकाय फैक्टरियों को बड़ी तादाद में श्रमिक उपलब्ध कराती हों या शायद वे इसे प्रगतिशीलता की निशानी मानते हों। अर्थशास्त्रियों के पास भारत की श्रमशक्ति में महिलाओं की कम भागीदारी की कोई वजह नहीं है लेकिन लेखक इसके लिए परंपरा को वजह मानते हुए कहता है कि उच्च शिक्षा और बढिय़ा रोजगारी वाली महिलाएं भी परंपरा के चलते पूर्णकालिक गृहिणी बन जाती हैं।

  • वियतनाम और चीन दोनों देशों की श्रमशक्ति में महिलाओं की जबरदस्त भागीदारी है। वियतनाम में 73.21 फीसदी के साथ यह सराहनीय स्तर पर है तो चीन 60.87 फीसदी पर है। भारत में 2005 में जहां यह 36.7 फीसदी था वहीं 2018 में घटकर 26 फीसदी रह गया है। ऐसे में बहुत अधिक भरोसा कायम होता नहीं दिखता। वियतनाम साफ तौर पर होड़ में आगे है। 2019 की पहली तिमाही में वियतनाम में विदेशी निवेश 86.2 फीसदी बढ़कर 10.8 अरब डॉलर हो गया। चीनी निवेश इसके आधा रहा। फॉक्सकॉम को जहां भारत में ऐपल आईफोन की असेंबली यूनिट स्थापित करने के लिए चार वर्ष संघर्ष करना पड़ा वहीं इंटेल, सैमसंग और एलजी ने एक ऐसे देश में जमकर निवेश किया जो 30 वर्ष तक युद्ध में उलझा रहा और जहां 30 लाख लोगों की जान गई।

  • अब निवेशक उसी छोटे से देश में निवेश कर रहे हैं। वियतनाम के पास इस निवेश को संभालने की सीमित क्षमता है। आर्थिक वृद्धि के तमाम अवांछित पहलू सामने आने लगे हैं: शहरी ट्रैफिक जाम, अचल संपत्ति की बढ़ती कीमतें, चीन की तुलना में कम कुशल कामगार, बंदरगाहों पर गतिरोध और श्रमिकों की कमी आदि। क्या यहां भारत के लिए अवसर है? अवसर होना चाहिए लेकिन निवेशक भारत के बजाय इंडोनेशिया के बाटम द्वीप का रुख कर रहे हैं। वह एक मुक्त व्यापार क्षेत्र है जो इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड और सिंगापुर को जोड़ता है। फिलहाल वह सबके आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।

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