दुनिया का अगला शक्ति केंद्र बनेगा भारत?

इतिहासकार विलियम मैकनील ने शक्ति के चरित्र और निष्पक्षता एवं नैतिकता के साथ उसके संबंधों की व्याख्या कुछ इस तरह की है: 'इसकी संभावना बेहद कम दिखती है कि ताकत को संगठित करने और अमल में लाने के लिए मानव क्षमताओं का हालिया एवं संभावित विस्तार इसके उपयोग को लेकर हिचक का स्थायी भाव रखेगा। संक्षेप में, शक्ति खुद को सशक्त बनाने के लिए शक्ति के कमजोर केंद्र बनाती है या शक्ति के विरोधी केंद्रों को प्रोत्साहित करती है। मानवजाति के संपूर्ण इतिहास में यही तथ्य प्रभावी रहा है।'

  • यह अंतरराष्ट्रीय संबंधों के यथार्थवादी मत को परिलक्षित करता है जिसमें कोई भी नैतिक आश्रय नगण्य है लेकिन यह मौजूदा भू-राजनीतिक वास्तविकता को बखूबी दर्शाता है। एक अग्रणी ताकत बनने की आकांक्षा रखने वाला भारत भी मौजूदा एवं संभावित शक्ति पर अपना दांव लगा रहा है। यह खुद से अधिक ताकतवर निकाय द्वारा 'निगल' लिए जाने की संभावना को नकारता है। लेकिन क्या उसे शक्ति के प्रतिद्वंद्वी केंद्र के तौर पर उभरने के लिए प्रेरित किया जाएगा? मैकनील ने यह भी बताया है कि एक स्थापित निकाय से एक आकांक्षी निकाय को ताकत का हस्तांतरण किस तरह हो सकता है? वह कहते हैं, 'कोई भी जनसंख्या धरती पर कहीं भी मौजूद सबसे कारगर एवं ताकतवर साधनों का उपयोग किए बगैर बाकी दुनिया को पीछे नहीं छोड़ सकती है। परिभाषा के मुताबिक ऐसे साधन धन एवं शक्ति के वैश्विक केंद्रों में ही स्थित होते हैं, वे कहीं भी हो सकते हैं। इस तरह वैश्विक नेतृत्व में किसी भी भौगोलिक विस्थापन की प्रस्तावना उच्चतम प्रबल कौशल के पूर्ववर्ती स्थापित केंद्रों से सफलतापूर्वक उधार ली जानी चाहिए।'

  • इतिहास में इस अवधारणा के कई उदाहरण मौजूद हैं। रोमन साम्राज्य ने शीर्ष तक के अपने सफर में ग्रीक सभ्यता से काफी कुछ उधार लिया था। इसी तरह अरबों ने भी अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए मध्य एशियाई और फारसी समुदायों के उन्नत ज्ञान-विज्ञान का बखूबी इस्तेमाल किया। फारसी समुदाय ने भी गणित, खगोलशास्त्र और चिकित्सा विज्ञान में भारतीय एवं चीनी लोगों से काफी कुछ सीखा था। हाल के दौर में हम अमेरिकी लोगों को एक सशक्त एवं उन्नत अर्थव्यवस्था का निर्माण करते हुए देखते हैं जिन्होंने ब्रिटेन और अन्य यूरोपीय देशों में औद्योगिक क्रांति के दौरान विकसित तकनीकों एवं कौशल को अपनाते हुए ऐसा किया। मीजी काल के जापान ने भी यही प्रक्रिया अपनाई थी। लेकिन इसका सबसे नया और जबरदस्त उदाहरण चीन है जो एक महान शक्ति के रूप में उभरकर सामने आया है। सुधारों एवं खुलेपन के चार दशकों में चीन ने उन्नत पश्चिमी ज्ञान एवं तकनीकों को किसी विशाल स्पंज की तरह सोख लिया है। इस दौरान चीन विनम्र रहने के साथ सीखने और उद्यम के भी लिए तैयार रहा है। यही तंग श्याओ फिंग के मशहूर कथन 'अपनी क्षमताएं छिपाकर रखो और अपने लिए वक्त हासिल करो' का सही मतलब भी था। 'भीख मांगो, उधार मांगो और चोरी करो' की इस रणनीति का मिलाजुला नतीजा यह हुआ है कि चीन एक विश्वसनीय आर्थिक एवं तकनीकी शक्ति के तौर पर उभरकर सामने आया है। मैकनील के शब्दों में, अटलांटिक-पार से प्रशांत-पार की तरफ शक्ति का भौगोलिक विस्थापन जारी है और इसके केंद्र में चीन है जो प्रतिस्पद्र्धी केंद्र है।

  • शक्ति के इस विस्थापन को एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से भी समझा जा सकता है। यह ऐसे प्रक्षेपण-पथ में घटित होता है जो अतिव्याप्त हो रहे तीन चरणों से परिभाषित किया जाता है। पहले चरण में देश शक्ति के अग्रणी केंद्रों से ज्ञान एवं उन्नत तकनीकें उधार लेते हैं और उन्हें अपना लेते हैं। उसके बाद समावेशन का दौर होता है जब उधार की तकनीकों एवं ज्ञान में वे महारत हासिल कर उन्हें अपना बना लेते हैं। तीसरे एवं अंतिम चरण में शक्ति का उभरता केंद्र अधिक स्वायत्त ढंग से नए तरह के ज्ञान एवं तकनीकों को जन्म देने लायक हो जाता है। उस समय शक्ति का भौगोलिक विस्थापन वास्तविक आकार लेने लगता है और एक स्थापित केंद्र या केंद्रों और उदीयमान प्रतिद्वंद्वी के बीच प्रतिस्पद्र्धा काफी मुखर होती है।

  • सवाल है कि चीन इस समय किस दौर से गुजर रहा है? वह शायद दूसरे दौर से तीसरे दौर की तरफ बढ़ रहा है। इसके उलट भारत अभी पहले चरण से दूसरे चरण की तरफ ही जा रहा है। चीन पहले से ही कृत्रिम मेधा, रोबोटिक्स और क्वांटम कंप्यूटिंग जैसी उच्च तकनीकों में अमेरिका से मुकाबला कर रहा है। वहीं भारत इस दौड़ में अभी बहुत मायने नहीं रखता है। यह सच है कि भारत के पास भी अंतरिक्ष कार्यक्रम जैसे विशेषज्ञता वाले कुछ क्षेत्र हैं जिससे गर्व पैदा होना सही भी है। लेकिन उत्कृष्टता के इन केंद्रों को अभी उत्कृष्टता के महाद्वीप बनना होगा, अन्यथा वे अपने आसपास के मध्यम दर्जे के सागर में ही डूब सकते हैं।

  • अगर चीन के अनुभव से हमें कोई सबक सीखना है तो वह यही है कि उच्च तकनीकों एवं ज्ञान को हरसंभव जगह से आत्मसात करने के साथ ही विनम्र एवं शालीन बने रहें। खास तौर पर ऐसे युग में जब वृद्धि का प्रमुख चालक तकनीक ही है और भविष्य के सफल समाज ज्ञानपरक समाज ही होंगे। भू-राजनीतिक कारक शक्ति के ऐसे प्रतिद्वंद्वी केंद्र के रूप में भारत के उभार का समर्थन करते हैं जो बड़ी शक्तियों के साथ प्रतिस्पद्र्धा, सह-अस्तित्व एवं सामंजस्य कायम रख सकता है। धन-दौलत और ताकत के स्थापित केंद्र अब भी अमेरिका, यूरोप और जापान ही हैं, लेकिन उनकी महत्ता थोड़ी कम हुई है। चीन के उदय को वे अपनी पुरानी महत्ता के लिए खतरा पैदा होने के तौर पर देखते हैं। स्थापित शक्तियों की नजर में भारत का भू-राजनीतिक मूल्य ऐसे अकेले देश के रूप में है जो एक भरोसेमंद ताकत बनने के लिए जरूरी क्षमताएं और संसाधन रखता है जिससे वह उभरते वैश्विक व्यवस्था में चीन को दबदबे वाली भूमिका निभाने से रोक सके। भारत का अपनी असीम संभावनाओं को पूरा करना इन शक्तियों के हित में भी है। विवेकपूर्ण उपयोग से भारत को पूंजी और प्रौद्योगिकी का बड़ा आधार बनाया जा सकता है जिससे वह वृद्धि की तीव्र रफ्तार कायम रख सकता है। एक जीवंत एवं बहुलवादी लोकतंत्र के रूप में भारत अपने अधिक ताकतवर साझेदारों के साथ राजनीतिक मूल्य भी साझा करता है और यह एक लाभ की स्थिति है।

  • भारत के लोगों की सर्वव्यापी मनोदशा एवं गहरी विविधता से निपटने की उनकी क्षमता एक वैश्वीकृत हो रहे विश्व से निपटने के लिए सभ्यता के बेमिसाल साधन हैं। लेकिन इन साधनों का फायदा उठाने के लिए कहीं अधिक विनम्रता एवं सब-कुछ जानने के बजाय सीखने की ललक जरूरी होगी। अतीत के सुनहरे स्तंभों का बार-बार जिक्र करने से मस्तिष्क एक विलक्षण भविष्य के लिए नहीं तैयार होता है। हम अपने इतिहास के ऐसे दुर्लभ दौर में हैं जब सत्तारूढ़ राजनीतिक व्यवस्था के पास अभूतपूर्व राजनीतिक पूंजी है और एक करिश्माई एवं महत्त्वाकांक्षी नेता उसकी अगुआई करता है। हालांकि ये संसाधन जल्दी नष्ट होने वाले भी हैं लिहाजा मुश्किल चयन के लिए उन्हें संभालना होगा। ये चयन ही एक महान शक्ति की हैसियत हासिल करने का हमारा रास्ता निर्धारित करेगा। जैसा कि लोगों के साथ होता है, राष्ट्रों के समक्ष उत्पन्न होने वाले अवसरों की भी संक्षिप्त जीवन अवधि होती है। वे उस समय तक हमारा इंतजार नहीं करते रहेंगे जब हम खुद को उसके लिए तैयार समझें। दुनिया आगे बढ़ रही है और भारत को या तो इस प्रगति वलय से आगे रहना होगा या फिर सीमित विकल्पों वाले भविष्य से ही संतोष करना होगा।

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