'South Asia and how Indian has its policy towards this region and coming out as true leader.
#Amar_Ujala
दक्षिण एशिया में अफगानिस्तान से लेकर म्यांमार और हिंद महासागर में 2000 के दशक के मध्य से चीन की दखलंदाजी ने इस क्षेत्र में भारत के पारंपरिक वर्चस्व को खत्म कर दिया। इस पूरे उपमहाद्वीप में बीजिंग ने अपने भारी वित्तीय संसाधनों का निवेश किया और अपनी सामरिक ताकत विकसित की, तो नई दिल्ली को चीन के आक्रामक रवैये को रोकने के लिए भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ा।
वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री ने ‘Neighbourhood First’ की नई नीति घोषित की, जिसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र के अन्य देशों से भागीदारी के लिए पहुंच बढ़ाई गई। इस तरह भारत ने अपनी वह रणनीति बदली, जिसके तहत वह दक्षिण एशिया में अपना प्रभाव बनाए रखने की विफल कोशिशें करता था और इस क्षेत्र के बाहर के किसी देश को महत्व नहीं देना चाहता था। आधिकारिक तौर पर इन अभूतपूर्व प्रयास को समान विचारधारा वाले देशों के साथ भागीदारी बढ़ाने का कदम माना जाता है।
विदेश सचिव एस जयशंकर के अनुसार, ज्यादा ‘लोक केंद्रित’ संपर्क परियाजनाओं और ‘सहकारी क्षेत्रीय ढांचे’ के निर्माण के लिए भारत उन बहुत से देश के साथ घनिष्ठतापूर्वक काम कर रहा है, जिनका नजरिया समान है। ऐसे कई उदाहरण हैं, जो भारत की क्षेत्रीय राजनीति में बदलाव के इन तत्वों की शिनाख्त करते हैं। अमेरिका के साथ-साथ भारत अब नेपाल, बांग्लादेश या श्रीलंका जैसे छोटे-छोटे देशों के साथ गहन परामर्श करता है। वाशिंगटन के साथ मिलकर काम करने की नई दिल्ली की व्यापक इच्छा की झलक मोदी के पिछले वर्ष के बयान में दिखी थी, जब उन्होंने कहा था कि अफगानिस्तान में विकास के लिए हम समान विचारधारा वाले अन्य भागीदारों के साथ काम करने के इच्छुक हैं।
- वर्ष 2015 में मालाबार नौसैनिक अभ्यास में जापान के स्थायी रूप से शामिल होने के बाद टोक्यो और नई दिल्ली ने संयुक्त रूप से विजन 2025 तैयार किया, जिसमें बेहतर क्षेत्रीय एकीकरण और कनेक्टिविटी में सुधार (खासकर बंगाल की खाड़ी क्षेत्र में) के लिए द्विपक्षीय और अन्य सहयोगियों के साथ समन्वय की तलाश का वायदा किया गया है।
- वर्ष 2016 में एशिया-अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर की घोषणा हुई, उसके बाद भारत ने चीन के ‘वन बेल्ट वन रोड’ पहल का विकल्प तैयार करने के लिए जापान के साथ काम करने की इच्छा जताई।
- वर्ष 2014 में भारत और रूस ने तीसरी दुनिया के देशों, खासकर बांग्लादेश और श्रीलंका में परमाणु ऊर्जा के विकास के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किया। वर्ष 2015 में पहली बार भारत के पूर्वी तट पर ऑस्ट्रेलिया-भारत का समुद्री अभ्यास हुआ। और ब्रिटेन के साथ भारत ने दक्षिण एशिया में विकास सहयोग के साथ तीसरी दुनिया के देशों में सहकारी भागीदारी के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किया, और क्षेत्रीय मामलों पर इसकी पहली औपचारिक वार्ता 2016 में हुई।
- ब्रसेल्स, पेरिस और बर्लिन के साथ भारत ने हिंद महासागर क्षेत्र में समुद्री सुरक्षा पर बातचीत की है और क्षेत्रीय आतंकवाद- विरोधी प्रयासों को मजबूत करने के लिए खुफिया जानकारियां साझा कर रहा है। इस क्षेत्र में बहुपक्षीय संगठनों को शामिल करने की अपनी पिछली अनिच्छा के विपरीत अंततः भारत ने उत्साहपूर्वक 2016-25 के लिए एशियाई विकास बैंक के दक्षिण एशिया उप क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग संचालन कार्यक्रम का समर्थन किया और इस महाद्वीप तथा दक्षिण पूर्व एशिया में संपर्क बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया।
हालांकि इन भागीदारों में से कई अभी उभर रहे हैं, लेकिन ऐसे कई उपाय हैं, जो उन्हें तीनों क्रमिक स्तरों पर विस्तार की अनुमति देंगे। सबसे पहले, नई दिल्ली और इस क्षेत्र से बाहर की ताकत को दक्षिण एशिया में तरक्की और साझेदारी की चर्चा और आकलन के लिए विशेष रूप से समर्पित नए संस्थागत ढांचों का विकास करने में निवेश करना चाहिए। मौजूदा क्षेत्रीय परामर्श के तहत नेपाल और श्रीलंका के मुद्दे अक्सर अफगानिस्तान, पाकिस्तान या व्यापक एशियाई मुद्दों के नीचे दब जाते हैं। इन तीन विशिष्ट क्षेत्रीय मार्गों पर विशिष्ट द्विपक्षीय वार्ता के लिए रास्ता बनाना चाहिए-चीन को ध्यान में रखते हुए आतंकवाद-विरोध और समुद्री सुरक्षा के साथ राजनीतिक एवं रणनीतिक मुद्दे, संपर्क, व्यापार और निवेश पहल पर ध्यान देते हुए आर्थिक मुद्दे और सहायता परियोजनाओं व अन्य आर्थिक सहायता पहल पर ध्यान केंद्रित करते हुए विकासात्मक मुद्दे। दूसरे स्तर पर, समन्वय की संभावना बढ़ाने के लिए भारत और उसके भागीदार दक्षिण एशिया में नीतिगत तालमेल के लिए द्विपक्षीय क्षेत्रों की पहचान कर सकते हैं, प्रत्येक पक्ष के तुलनात्मक लाभ को अधिकतम करने के लिए श्रम विभाजन पर सहमत हो सकते हैं। तीसरे और सबसे उच्च स्तर पर, चीन को रोकने और दक्षिण एशिया में अग्रिम ठोस सहयोग के लिए भारत और उसके क्षेत्र से बाहर के भागीदार को संयुक्त परियोजनाओं को एकीकृत और कार्यान्वित करने की आकांक्षा रखनी चाहिए। इसके लिए भारत-अमेरिका-अफगानिस्तान की तर्ज पर द्विपक्षीय वार्ता में तीसरे देश को शामिल करने की जरूरत होगी।
भारत और उसके क्षेत्र से बाहर के सहयोगियों को चुनौतियों का सामना करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। सबसे पहले तो भारत के इस क्षेत्र से बाहर के सहयोगी को निरंतर इस क्षेत्र में भारत को प्रमुख भूमिका सौंपनी होगी और अपनी सुरक्षा चिंताओं को अलग रखना होगा। दूसरी बात, जिस तरह से इस क्षेत्र के छोटे देश चीन के खिलाफ भारत और उसके सहयोगी के साथ खेल खेलते हैं, वैसे में उनसे घनिष्ठ संपर्क और तालमेल महत्वपूर्ण है। और अंत में , जब लोकतंत्र और मानवाधिकार की बात आएगी, तो नई दिल्ली और उसके दोस्तों को अपनी भिन्न प्राथमिकताओं के चलते सामयिक तनाव का सामना करना पड़ेगा। इस तरह की चुनौती अभी म्यांमार में देखी जा रही है, जहां रोहिंग्या शरणार्थी के मुद्दे पर भारत और पश्चिमी देशों का रुख अलग-अलग है