मालदीव पर मौन से नहीं चलेगा काम  (Silance not solution to maldive crisis)


Maldive and International Dynamics
भारत एक अरसे से ‘नेबर्स फर्स्ट यानी ‘पड़ोसी पहले की नीति को अपनी विदेश नीति में वरीयता दे रहा है, लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि भारत के कुछेक छोटे पड़ोसी देश अविश्वास और बाह्य आकर्षण के सिंड्रोम का शिकार हैं। इसी वजह से इन देशों में चीनी रणनीति को आधार मिल जाता है और घरेलू स्तर पर अस्थिरता व संघर्ष जैसी स्थितियां उत्पन्न् हो जाती हैं। फिलहाल यही स्थिति मालदीव में देखी जा सकती है। आलम यह है कि इस माहौल में मालदीव की सरकार अपने दूतों को चीन, पाकिस्तान व सऊदी अरब भेज रही है, लेकिन इस मुल्क की विपक्षी पार्टियां, पूर्व राष्ट्रपति और न्यायपालिका भारत की ओर आस भरी नजरों से देख रहे हैं। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि भारत किस विकल्प को चुने? क्या अपने राष्ट्रीय हितों और मालदीव के नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा को देखते हुए यह आवश्यक नहीं है कि भारत वहां ऑपरेशन कैक्टस का इतिहास पुन: दोहराए? या वह अपने आदर्श के अनुरूप तटस्थ रहने की नीति का वरण करे? एक सवाल यह भी उठता है कि यदि भारत मालदीव में सक्रियता दिखाता है तो चीन इसे किस रूप में लेगा और किस तरह की प्रतिक्रिया करेगा?
Maldive :  internal factors or External factors ?
हिंद महासागर में स्थित लगभग सवा चार लाख की आबादी वाले लघु पड़ोसी देश मालदीव में पिछले कुछ समय से जो कुछ भी हो रहा है, उसे सिर्फ अंदरूनी सियासी उथल-पुथल तक सीमित नहीं माना जा सकता, बल्कि इसके दूरगामी निहितार्थ हैं। यह कहीं न कहीं भारतीय हितों को भी प्रभावित करता है। आबादी की दृष्टि से मालदीव भले ही महत्वपूर्ण न हो और उसकी आर्थिक हैसियत बड़ी न हो, लेकिन हिंद महासागर में उसकी भौगोलिक स्थिति उसे सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण बना देती है। विशेषकर जब चीन वहां निर्णायक रणनीतिक स्थिति में हो, सऊदी अरब धार्मिक-आर्थिक रूप से मालदीव की मौजूदा सरकार का समर्थक बना हो और पाकिस्तान धार्मिक-सैन्य रूप से वहां मजबूत हैसियत रखता हो, तब वहां उभरने वाली कोई भी हलचल हमारे लिए भी कहीं ज्यादा संवेदनशील और सचेत करने वाली हो जाती है।

Peeping into Maldivian History
    यदि हम अतीत के कुछ पन्न्े पलटें तो स्पष्ट हो जाएगा कि मालदीव में आज जो सियासी ड्रामा चल रहा है, उसकी पटकथा बहुत पहले ही लिखी जा चुकी थी, अर्थात 2012 से पहले ही, जब मोहम्मद नशीद को राष्ट्रपति पद से हटाया गया था। भारतीय राजनय को उसी समय मालदीव की स्थिति को सही से समझना और फिर उसके मुताबिक एक्शन लेना था। लेकिन उस समय भारतीय राजनय ऐसा करने में नाकाम रहा। नतीजा यह हुआ कि भारत के प्रति सकारात्मक, मैत्रीपूर्ण रवैया रखने वाले मोहम्मद नशीद सत्ता से बाहर हो गए और अब निर्वासित जीवन बिता रहे हैं। मोहम्मद नशीद की असफलता के बाद वहां की सत्ता कट्टरपंथी अब्दुल्ला यामीन के हाथों में चली गई। हालांकि उस समय खेले गए इस राजनीतिक ड्रामे में पूर्व राष्ट्रपति मामूल अब्दुल गयूम की भी भूमिका अहम रही थी, जिन्हें यामीन ने नजरबंद कर रखा है। सेना और कट्टरपंथी तत्व दो अन्य ऐसे घटक थे, जो तबसे लेकर अब तक यामीन के साथ हैं और इन्हीं की बदौलत यामीन इस हद तक जाने की कोशिश कर पा रहे हैं।
     यामीन ने सत्ता हासिल करने के बाद सेना और कट्टरपंथ की ताकत को आधार बनाकर अपने विरोधियों को खत्म किया, उन्हें जेल में डाला तथा लोकतंत्र को कमजोर कर दिया। अपने इन प्रयासों के साथ वे निरंकुश एकाधिकारवादी शासक बनने की ओर अग्रसर होते गए। वर्ष 2018 तक पहुंचते-पहुंचते वे मुतमईन हो गए कि अब उन्हें चुनौती देने वाला कोई नहीं बचा। लेकिन पिछले दिनों जब सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दिया कि सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा किया जाए, तब राष्ट्रपति यामीन ने बड़ा झटका महसूस किया। अब उनके पास दो विकल्प थे। एक यह कि वे अपने फैसले वापस ले लें और दूसरा यह कि उन्हें बरकरार रखते हुए आगे बढ़ें। यदि पहला विकल्प चुनते तो उन्हें सत्ता छोड़नी पड़ जाती और नशीद के लिए रास्ता साफ हो जाता। इस स्थिति में यामीन आने वाले समय में जेल भी पहुंच सकते थे। इसलिए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को मानने से इनकार करते हुए आपातकाल की घोषणा कर दी। आपातकाल यामीन के लिए आखिरी दांव था। लेकिन सवाल यह उठता है कि यामीन इस दांव को किसके दम पर खेल गए? अपने या फिर चीन के अथवा चीन, सऊदी अरब और पाकिस्तान के दम पर?
    इसके बाद मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति और विपक्ष के नेता मोहम्मद नशीद ने ट्वीट के जरिए भारत से गुहार लगाई कि उसे सैन्य हस्तक्षेप कर राष्ट्रपति यामीन द्वारा गिरफ्तार कराए गए जजों और विपक्ष के नेताओं को आजाद कराना चाहिए।भारत इस संदर्भ में कोई प्रतिक्रिया देता, इससे पहले ही चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गेंग शुआंग की तरफ से बयान आ गया किमालदीव की संप्रभुता को ध्यान में रखते हुए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इस मामले में कोई भी रचनात्मक कदम नहीं उठाना चाहिए। ऐसा करने से मालदीव की स्थिति और बिगड़ सकती है।चीनी प्रवक्ता ने भारत का नाम तो नहीं लिया, लेकिन चीन का इशारा किधर था, यह भारत भी अच्छी तरह से समझ रहा है। सवाल यह उठता है कि चीन को ऐसा क्यों कहना पड़ा? वह दक्षिण एशियाई देशों का नेता या संरक्षक तो है नहीं!


Chinese factor at play


दरअसल मालदीव की विपक्षी पार्टियों का कहना है कि राष्ट्रपति यामीन चीन के समर्थन की वजह से ऐसा कदम उठा रहे हैं। उन्होंने चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौता किया है और देश में चीन की कई परियोजनाओं कोे मंजूरी दी है। मालदीव चीन के वन बेल्ट वन रोड प्रोजेक्ट का समर्थन भी कर रहा है (हाल ही में मालदीव ने चीन के साथ मैरीटाइम सिल्क रूट से जुड़े एमओयू भी साइन किए हैं) और उसका मारओ बंदरगाह चीन की ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स पॉलिसी का एक अहम भाग है। साफ हैकि हिंद महासागर में मालदीव की भौगोलिक स्थिति सामरिक लिहाज से चीन को अपने लिए बेहद उपयोगी लग रही है। चीन-मालदीव की यह दोस्ती भारत को घेरने या रणनीतिक रूप से भारत को कमजोर करने संबंधी एक भू-सामरिक फ्रंट तैयार करने की जुगत लगती है, जिसके जरिए चीन अपने विस्तारवादी मंसूबे पूरा करना चाहता है।


Concluding mark
कुल मिलाकर मालदीव की समस्या केवल घरेलू नहीं है, क्योंकि राष्ट्रपति यामीन के पीछे असल ताकत के रूप में चीन और सहयोगियों के रूप पाकिस्तान व कुछ हद तक सऊदी अरब खड़े हुए हैं। यानी अब राष्ट्रपति यामीन के सफल होने का मतलब होगा चीन का सफल होना। फिर असफल कौन होगा? इसका हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। अत: भारत के लिए यह आवश्यक है कि वह मालदीव में सक्रिय हस्तक्षेप करे। किंतु भारत के हस्तक्षेप का आशय होगा चीन के साथ टकराव। यानी चीन मालदीव को भूटान (डोकलाम) की तरह संघर्ष का मैदान बनाना चाहेगा। ऐसे में भारत को कोई अग्रगामी कदम उठाने से पहले चीन को सामने रखना होगा। लेकिन यदि भारत ऐसा नहीं करता है तो वह न केवल मालदीव, बल्कि अन्य सदाशय पड़ोसी देशों की लोकतांत्रिक शक्तियों तथा उनकी जनता को भी यह संदेश देने से चूक जाएगा कि भारत उनकी सुरक्षा, स्थिरता व प्रगति के प्रति सजग और संवेदनशील है।
 


#Nai_Duniya

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