- भारतीय लोकतन्त्र की आत्मा हमारी संसद में बसती है। संभवतः इसीलिये संसद को लोकतन्त्र का मंदिर भी कहा जाता है। सांसद, केवल किसी एक दल या संसदीय क्षेत्र के प्रतिनिधि नहीं होते हैं, वे हमारे संवैधानिक आदर्शों के संवाहक होते हैं। भारत के संविधान की उद्देशिका या preamble में जनता की संप्रभुता स्पष्ट की गई है, जिसमे कहा गया है कि, “हम, भारत के लोग ........ इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं”। ‘हम भारत के लोग’ ही सचमुच में ‘लोक’ हैं, जो हमारे लोकतन्त्र की शक्ति के स्रोत हैं।
- लोकतान्त्रिक व्यवस्था, भारत के लिए नई नहीं है। ऋग्वेद में ‘सभा’ और ‘समिति’ के उल्लेख मिलते हैं। बौद्ध सभाओं में संसदीय प्रणाली के नियमों को अपनाया गया था और ‘प्रस्ताव’, ‘सचेतक’ तथा ‘निंदा-प्रस्ताव’ जैसे पारिभाषिक शब्दों का उपयोग होता था। बुद्ध-कालीन राजनीतिक व्यवस्था के इतिहास में वज्जि, लिच्छवि, मल्ल, शाक्य और मौर्य तथा अन्य गणराज्यों के प्रमाण मौजूद हैं। लिच्छवि सभा का अधिवेशन जिस भवन में होता था, वह ‘संस्थागार’ कहलाता था। इतिहासकारों का अनुमान है कि, उस संस्था में, सभी निर्णय जनता के नाम पर लिए जाते थे। दक्षिण भारत में भी, लोकतान्त्रिक मूल्यों पर आधारित शासन व्यवस्था के, प्राचीन उदाहरण मिलते हैं। आरंभ से ही, जन-जातीय व्यवस्थाएँ भी लोकतान्त्रिक मूल्यों पर आधारित रही हैं। लोकतन्त्र की प्राचीनतम परंपरा वाले, विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र में, सांसद होने के नाते, आप सबकी ज़िम्मेदारी, और भी बढ़ जाती है।
- संविधान सभा में, बाबासाहेब आंबेडकर ने, 25 नवंबर, 1949 को, जो भाषण दिया था, वह आज भी, संसदीय दायित्वों को निभाने में, हम सबको, स्पष्ट मार्गदर्शन प्रदान करता है। उन्होने कहा था कि अब हमारे पास विरोध व्यक्त करने के संवैधानिक तरीके उपलब्ध हैं, अतः संविधान विरोधी ‘Grammar of Anarchy’ से बचना जरूरी है। उन्होने कहा था कि मात्र राजनैतिक लोकतन्त्र से संतुष्ट होना अनुचित होगा। सामाजिक लोकतन्त्र की स्थापना भी करनी होगी। बाबासाहेब की इच्छा थी कि ‘जनता के लिए सरकार’ चलाने के रास्ते में जो भी अड़चनें पैदा हों, उनका खात्मा करने के अभियान में, जरा भी कमजोरी नहीं आनी चाहिए। स्वतन्त्रता, समता, और भाई-चारा को वे एक दूसरे पर निर्भर मानते थे। उनकी दृढ़ मान्यता थी, कि इन तीनों में किसी एक के अभाव में बाकी दोनों अर्थहीन हो जाते हैं।