जोतिबा और सावित्रीबाई फुले का संघर्ष भारतीय समाज के समावेशी होने की भी कहानी है
यह 1826 की बात है. उस साल महाराष्ट्र के एक ईसाई मिशनरी समूह ने अपने अमेरिकी बोर्ड से अनुरोध किया कि वे किसी अविवाहित और अकेली अमेरिकी महिला को बॉम्बे भेजें, ताकि वहां लड़कियों के लिए एक स्कूल चलाया जा सके. थोड़ी हिचक और ना-नुकूर के बाद मैसाचुसेट्स के बॉस्टन शहर से सिंथिया फैरार नाम की एक 31 वर्षीय महिला को भारत भेजा गया. 29 दिसंबर, 1827 को वे बॉम्बे पहुंचीं. विरोधों के बावज़ूद 1829 तक उनके स्कूल में करीब 400 भारतीय लड़कियां पढ़ रही थीं.
भारत में अगर लड़कियों के लिए औपचारिक शिक्षा व्यवस्था के इतिहास की बात करें तो 1830 के दौरान भी पुणे के शनिवार-वाड़े में सात-आठ लड़कियों के लिए गुप्त ढंग से एक स्कूल चलाया जाता था. लेकिन ये सभी लड़कियां कथित सवर्ण समुदाय की ही थीं. वहीं 1847 में बंगाल में बारासात (आज का 24 परगना) के दो बंधु नबीनकृष्ण मित्रा और कालीकृष्ण मित्रा ने भारत में लड़कियों के लिए पहला प्राइवेट स्कूल खोला था. कालीकृष्ण मित्रा एक प्रसिद्ध डॉक्टर थे. उन्होंने एक साहसी व्यक्ति प्यारी चरण सरकार के नेतृत्व में यह स्कूल खोला. शुरू में केवल दो लड़कियां आईं. इनमें से एक स्वयं नबीनकृष्ण मित्रा की बेटी कुन्तीबाला थी. हालांकि बहुत बाद में यह ‘कालीकृष्ण गर्ल्स हाई स्कूल’ के रूप में बहुत आगे गया. प्यारी चरण सरकार को ‘आर्नोल्ड ऑफ ईस्ट’ कहा गया. यह उपाधि उन्हें महान ब्रिटिश शिक्षाविद् और रग्बी स्कूल के प्राचार्य थॉमस आर्नोल्ड के नाम पर दी गई थी.
जोतिबा और सावित्रीबाई को मिस फैरार के बालिका विद्यालय से बहुत प्रेरणा मिली. जोतिबा एक जगह स्वयं लिखते हैं – ‘अहमदनगर के अमेरिकन मिशन में मिस फैरार ने जो स्कूल चलाया, उसे मैंने अपने मित्रों के साथ देखा. जिस ढंग से उन लड़कियों को शिक्षा दी जाती थी, वह पद्धति मुझे बहुत अच्छी लगी.’ (स्रोत- भारतीय समाज-क्रान्ति के जनक महात्मा जोतिबा फुले, पृष्ठ-25, लेखक- डॉ. मु. ब. शहा, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2013) सावित्रीबाई को सगुणाबाई नाम की महिला से भी बहुत सहयोग मिला था. सावित्री और सगुणाबाई ने मिसेज मिशेल के नार्मल स्कूल से प्रशिक्षण भी लिया था. अगस्त, 1848 में पूना के बुधवार पेठ में जोतिबा ने अछूत बच्चों के लिए एक स्कूल शुरू किया जो पूरे भारत में अपने ढंग का पहला स्कूल था. सावित्रीबाई इसकी पहली शिक्षिका बनीं.
उल्लेखनीय है कि एक तरफ जहां जन्मना ब्राह्मण समुदाय के कुछ मूढ़मति लोगों ने जोतिबा का विरोध किया, वहीं उनके सबसे घनिष्ठ मित्र और सहयोगी भी जन्मना ब्राह्मण समुदाय के ही रहे. इनमें सखाराम यशवंत परांजपे, सदाशिवराव बल्लाल गोवंडे, मोरो विट्ठल बालवेकर, बापुराव मांडे, मानाजी डेनाले और पंडित मोरेश्वर शास्त्री प्रमुख थे. (स्रोत- जोतिबा फुले, लेखक-मायाराम, प्रभात प्रकाशन, और मु. ब. शहा की उपरोक्त पुस्तक, पेज-28) पहली बार जब जोतिबा का स्कूल विरोधों की वजह से बंद हुआ तो जुनागंज पेठ में सदाशिवराव गोवंडे नाम के जन्मना ब्राह्मण ने ही उन्हें स्कूल के लिए अपनी जगह मुहैया कराई.
लहूजी बुबा मांग और राणबा महार वहां कुछ दलित बच्चों को ले आए. उस विद्यालय में शिक्षक के तौर पर विष्णु पंत शत्ते नाम के जन्मना ब्राह्मण ही थे. और जब विद्यार्थियों की संख्या बढ़ने लगी और बड़ी जगह की जरूरत पड़ी तो उसी गली के एक मुसलमान भाई उस्मान शेख ने जोतिबा को स्कूल के लिए जगह दी. उस्मान शेख की बहन फातिमा शेख भी सावित्रीबाई के साथ शिक्षिका की भूमिका में आ गईं.
विशेष तौर पर केवल लड़कियों के लिए पहला विशाल स्कूल तीन जुलाई, 1857 को बुधवार पेठ में जोतिबा ने खोला. इस स्कूल के लिए जगह देनेवाले अण्णा साहब चिपलूणकर भी जन्मना ब्राह्मण ही थे. (स्रोत- उपरोक्त डॉ. मु. ब. शहा की पुस्तक, पेज-26) सावित्रीबाई जब घर से स्कूल और स्कूल से घर आती-जातीं तो उनपर गोबर और पत्थर फेंके जाते. एक पहरेवाला ब. स. कोल्हे नाम का एक गृहस्थ कुछ दिनों तक उनके साथ चलता रहा. सावित्रि बाई के इस महान कार्य को शिक्षा विभाग के जिस सरकारी अधिकारी ने सबसे पहले नोटिस किया और उसकी सराहना कर सबके सामने लाया वह भी एक जन्मना ब्राह्मण दादोबा पांडुरंग तरबंडकर थे. दादोबा विख्यात व्याकरणकार और मराठी स्कूलों के विभागीय सचिव थे. उन्होंने 16 अक्तूबर, 1857 को जोतिबा-सावित्रीबाई के इन स्कूलों का मुआयना किया था.
19 नवंबर, 1852 को पुणे महाविद्यालय के प्राचार्य मेजर कंठी ने एक विशाल समारोह में 200 रुपये का महावस्त्र और श्रीफल देकर जोतिबा का सम्मान किया था. ‘बॉम्बे गार्डियन’, पूना ऑब्ज़र्वर, ज्ञानप्रकाश और ज्ञानोदय जैसे तत्कालीन समाचार पत्रों ने जोतिबा के इस कार्य की मुक्त कंठ से सराहना की. दिलचस्प है कि कुछ मूढ़मति और कट्टर ‘सवर्णों’ के उकसावे पर जिन दो लोगों ने जोतिबा और सावित्रीबाई फुले को जान से मारने की कोशिश की थी उनके नाम हैं- घोंडीराव नामदेव कुम्हार और रोद्रे. ये बात और है कि इनमें से एक हमेशा के लिए जोतिबा का अंग-रक्षक बन गया और दूसरा जोतिबा के ‘सत्यशोधक समाज’ का प्रबल समर्थक सिद्ध हुआ.
ये सारे प्रसंग आज इसलिए कि जब हम भारतीय समाज को केवल नकारात्मक और संघर्षवादी नज़रिए से देखने लगते हैं तब उसकी सामासिक संस्कृति के मानवीय पहलुओं और प्रसंगों को नज़रअंदाज कर देते हैं. कई बार अनजाने में और कई बार जान-बूझकर भी. सावित्री और जोतिबा को एक-दूसरे के रूप में कितना सुंदर साथी मिला. दोनों ने लगातार और सप्रयास न केवल अपने प्रेमास्पद और सोद्देश्यात्मक दाम्पत्य को सींचा, बल्कि जब जिसका सहयोग मिला उससे लिया. उन्होंने सभी समुदाय के लोगों को अपनाया, सबसे सीखा. और इसलिए सभी समुदाय के लोगों ने उन्हें अपनाया, सहयोग दिया. उनका शुरुआती आक्रोश भी धीरे-धीरे पिघलकर एकतामूलक समाज की स्थापना हेतु बह चला. प्रतिक्रिया की जगह उनका कार्य रचनात्मक प्रबोधन का रहा-
महात्मा जोतिबा के इस मराठी अभंग में इसी की झलक तो मिलती है -
‘मांग आर्यामध्ये पाहूं जाता खूण. एक आत्म जाण. दोघां मध्ये..
दोघे ही सारीखे सर्व खाती पिती. इच्छा ती भोगती सारखेच.
सर्व ज्ञाना मध्ये आत्मज्ञान श्रेष्ठ. कोणी नाही भ्रष्ट. जोती म्हणे..’
(यानी महार, मांग और कथित आर्यों में कोई भेद नहीं. दोनों में एक ही आत्मा का निवास है. दोनों समान ढंग से खाते-पीते हैं. उनकी इच्छाएं भी समान होती हैं. जोति यह कहता है कि सारे ज्ञान में आत्मज्ञान श्रेष्ठ है, और कोई भी भ्रष्ट नहीं है, इसे जान लो.)
गांधी और कस्तूरबा के दाम्पत्य की तरह जोतिबा-सावित्री का दाम्पत्य भी बहुत ही मोहक और अनुकरणीय है. उसमें कहीं भी प्रतिक्रियावाद और अंध-नकारवाद की जगह नहीं है. वैकल्पिक ‘राष्ट्रपिता’ और वैकल्पिक ‘शिक्षक दिवस’ की मांग हमें कहीं-न-कहीं प्रतिक्रियावादी बनाती है. वह जोतिबा फुले और सावित्रीबाई जैसी महान शख्सियतों की गरिमा को बढ़ाने की जगह उसे कम ही करती है. एक समतामूलक समाज की रचना सबको जोड़ने से होगी, तोड़ने से नहीं.