न्यायपालिका को अर्थशास्त्र में 'क्रैश कोर्स' की जरूरत

न्यायपालिका को अर्थशास्त्र में 'क्रैश कोर्स' की जरूरत

नीति आयोग के मुख्य कार्याधिकारी अमिताभ कांत ने हाल ही में प्रकाशित अपनी किताब में लिखा है कि न्यायाधीशों को अपने फैसलों के आर्थिक प्रभावों को लेकर सतर्क होना चाहिए। वह अपने इस आकलन में एकदम सही हैं। उच्चतम न्यायालय के एक हालिया फैसले में गेल इंडिया लिमिटेड को उपग्रह संचार सेवा के एवज में स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल करने पर दूरसंचार विभाग को 1.72 लाख करोड़ रुपये देने को कहा गया है। सार्वजनिक क्षेत्र की कई अन्य कंपनियों पर भी इस फैसले का ऐसा ही असर होना है लिहाजा सरकार मामले के निपटारे के लिए एक समिति गठित कर सकती है। सच तो यह है कि दूरसंचार विभाग के हक में दिए गए इन अदालती फैसलों को लागू करा पाना नामुमकिन है। इस मुद्दे को आखिर में निपटा ही लिया जाएगा।

लेकिन हमें यह सवाल पूछना है कि न्यायपालिका को अर्थशास्त्र की अनिवार्यताओं के बारे में क्रैश कोर्स क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? इस दिशा में तत्काल कदम उठाने की जरूरत है क्योंकि व्यापक समाज, अनुकरण करने वाले व्यक्तियों और दोनों से बची रहने वाली अर्थव्यवस्था के बीच एक विभेद करना महत्त्वपूर्ण है। समाज समता की मांग करता है। व्यक्ति न्याय की मांग करते हैं लेकिन अर्थव्यवस्था सक्षमता की मांग करती है। सत्तर के दशक की शुरुआत तक न्यायपालिका फैसले देते समय काफी हद तक इन विभेदों को दिमाग में रखती थी। न्यायाधीश खुद को मौजूदा कानून का समर्थक मानते थे और कानून बनाने का जिम्मा संसद पर छोड़ देते थे।

लेकिन 1971 के बाद इसमें बड़ा बदलाव आया। उस समय शीर्ष न्यायिक प्रणाली का हिस्सा बनने वाले नए न्यायाधीश खुद को पुराने न्यायाधीशों से काफी अलग मानते थे लेकिन सामाजिक समता, व्यक्तिगत न्याय एवं आर्थिक सक्षमता के बीच विभेद धीरे-धीरे धुंधला पडऩे लगा। न्यायाधीशों ने केवल इस आधार पर फैसले देने शुरू कर दिए कि अमुक कानून क्या है बल्कि वे इस बात को भी आधार बनाने लगे कि उनकी सोच के हिसाब से कानून क्या होना चाहिए? इस तरह वे सकारात्मक से निर्देशात्मक दिशा में बढ़ते चले गए। इसका नतीजा यह हुआ कि किसी को भी फायदा नहीं हुआ।

मुश्किल काम

मानव-निर्मित संस्थानों के लिए व्यक्तिगत न्याय, सामाजिक समता और आर्थिक सक्षमता के बीच संतुलन साध पाना खासा मुश्किल है। असल में, वैश्विक अनुभव दिखाता है कि ऐसा हो पाना नामुमकिन है। इस त्रिकोण में मुफीद बैठने में सबसे ज्यादा मुश्किल आर्थिक सक्षमता को आती है। ऐसा होने की वजह यह है कि लगभग हमेशा ही सामाजिक समता एवं व्यक्तिगत न्याय दोनों के खिलाफ साथ-साथ काम करता है। दरअसल अधिकतम सक्षमता केवल तभी हासिल की जा सकती है जब बाजार बदली आर्थिक परिस्थितियों के हिसाब से स्वतंत्र रूप से संयोजन बिठा लेते हैं।

हालांकि न्यायपालिका ने इसे स्वीकृति देने की मंशा जताई है क्योंकि यह न्याय एवं समता को लेकर पूरी तरह बेचैन है। लेकिन अगर हम इसे प्रमुख कार्य के रूप में स्वीकार भी कर लें तो हमारे पास फिर भी दो समस्याएं रह जाती हैं। एक समस्या यह है कि व्यक्तिगत न्याय को अधिकतम करने से सामाजिक समता कम हो सकती है और इसकी ठीक उलटा भी होता है। अर्थशास्त्रियों ने दर्शन के नजरिये से इस समस्या का गहन अध्ययन किया है। दूसरी समस्या यह है कि आर्थिक सक्षमता के बगैर न्याय एवं समता मध्यावधि एवं दीर्घावधि में प्रतिकूल रूप से प्रभावित होता है। हम इसे भारत में अपने चारों तरफ देख सकते हैं।

आखिर में, ये सभी स्थितियां एक आसान सवाल की तरफ ले जाती हैं: न्याय, समता एवं सक्षमता के बीच आपसी क्रम किस तरह का होना चाहिए? इस समस्या पर न्यायपालिका के भीतर और बाहर दोनों जगह व्यापक एवं समझदारी भरी चर्चा की जरूरत है। सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी की अगुआई वाली कांग्रेस ने पुरानी धारणाओं को किनारे कर दिया था। उसी तरह बौद्धिक यथास्थिति में छेड़छाड़ को लेकर भय खाने वाली भारतीय जनता पार्टी को भी वही प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए। सच कहें तो उसने ऐसा करने की कोशिश भी की है। लेकिन दुर्भाग्य से उसने सक्षमता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का खुला ऐलान करने के बजाय बहानेबाजी की कोशिश की है।

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