स्कूलों में कृषि की पाठशाला शुरू करने के अर्थ

स्कूलों में कृषि की पाठशाला शुरू करने के अर्थ

पाठ्यक्रम में पेड़-पौधों की जानकारी देने से ज्यादा अच्छा है कि बच्चों को इसका व्यावहारिक ज्ञान दिया जाए।.

केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावडे़कर ने कहा है कि बच्चों को जलवायु और पर्यावरण के प्रति जागरूक करने के लिए सरकार की ओर से प्राथमिक शिक्षा में एक नया पाठ्यक्रम जोड़ा जाएगा। इसमें स्कूली बच्चे वन विभाग के सहयोग से पौधों को रोपना और उनकी देखभाल करना सीखेंगे। अभी चंद सप्ताह पहले तक प्रकाश जावड़ेकर पिछली सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री का कार्यभार संभाल रहे थे, इसलिए जो वह कह रहे हैं, उसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि ऐसा कोई विचार शायद शिक्षा विभाग के पास भी हो। इस अटकल को अगर छोड़ भी दें, तो पहली नजर में यह सुझाव काफी अच्छा लगता है। फिर भी, इसके सभी जगह लागू हो सकने को लेकर शक जरूर बना रहेगा। खासकर महानगरों में जहां बहुत से स्कूल तीन-चार मंजिला इमारतों में चलते हैं, और वहां बच्चों के खेलने तक की जगह नहीं है। हालांकि प्रकृति और पर्यावरण को समझने की जरूरत सबसे ज्यादा इन्हीं बच्चों को है। .

कृषि समाज से जैसे-जैसे शहरी सभ्यता की दूरी बढ़ी है, अपने आसपास की प्रकृति को हम भूलते गए हैं। बच्चों को जिस हिसाब से नई-नई तकनीक का ज्ञान है, उतना ज्ञान अपने पड़ोस की प्रकृति का नहीं है। सड़क किनारे, पाकार्ें में, खेतों के आसपास लगे अधिकांश पेड़ों के नाम बच्चों को मालूम नहीं हैं। न उन्हें बताए जाते हैं और न उनके पाठ्यक्रम की किताबें इसके बारे में कुछ कहती हैं। हालांकि ये किताबें पहले भी ऐसा कुछ नहीं बताती थीं, लेकिन पहले स्कूलों, खासकर गांवों और कस्बों के स्कूलों के भीतर और बाहर बहुत कुछ ऐसा चलता था, जिससे हम बच्चे सहज ढंग से ही सब कुछ सीख लेते थे। आज उस दौर को याद करने का लाभ भले ही बहुत ज्यादा न हो, लेकिन उस अतीत को याद करके वर्तमान के लिए बहुत कुछ सीखा जरूर जा सकता है।.

हमारी पीढ़ी के अधिकांश लोग गांव या ग्रामीण-कस्बाई वातावरण के सरकारी स्कूलों में पढ़कर बड़े हुए हैं। उन स्कूलों में इमारतें इतनी अच्छी नहीं थीं, कई बार फर्श कच्चे होते थे, यहां तक कि छतें भी गायब होती थीं, लेकिन कुछ ऐसी चीजें जरूर थीं, जो अब कम होती जा रही हैं। बड़े मैदान थे और इनमें बहुत सी क्यारियां बनी होती थीं। बच्चों को क्यारियां बांटी जाती थीं। मौसम के अनुसार तरह-तरह के फूलों के अलावा सब्जी, खीरा, ककड़ी, तरबूज, तोरई, भिंडी, बैंगन, लौकी, गोभी, कद्दू, मेथी, पालक, धनिया, आलू आदि के बीज बोए जाते थे। बोने से पहले कैसे क्यारी की गुड़ाई करनी है, कितनी नमी चाहिए, इसके बाद बीज बोकर जो कुल्ले निकलेंगे, उन्हें चिड़ियों से कैसे बचाना है- यह बताया जाता था। फिर समय-समय पर क्यारियों की गुड़ाई करनी पड़ती थी। निराना पड़ता था। घास-फूस को हटाना पड़ता था। बच्चों में आपसी प्रतियोगिता भी चलती रहती थी कि किसकी क्यारी में सबसे अधिक पौधे, बेलें उगी हैं, कहां खूब फल और सब्जियां लगी हैं। कृषि संबंधी अन्य तमाम बातें भी उन्हें पता चलती थीं। जैसे कि पत्ते वाली सब्जियों में अगर ऊपर तक पानी भर दोगे, तो वे गल जाएंगी। लगा फल अगर कच्चा है, तो उसे छुएं नहीं, क्योंकि उससे उनका विकास रुक सकता है। किस मौसम में कौन सी फसल होती है, किसके बीज कैसे दिखते हैं, किसके बीज साधारण क्यारी और किसके मेड़ बनाकर बोने पड़ते हैं, खेती-किसानी से जुड़ी तमाम बातें बड़ी सहजता से सीख ली जाती थीं और शिक्षा के साथ ही प्रकृति से भी एक सहज रिश्ता बन जाता था। इस ज्ञान के लिए आज वन विभाग की मदद की बात हो रही है, पर तब इसकी जरूरत ही नहीं थी। यह जरूर है कि अगर स्कूलों में यह सब हो, तो उसे बाल मजदूरी कहने वाले कई स्वर भी उठने लगेंगे। .

बच्चों को किसी तरीके से यह सब आज भी सिखाया जाए, तो यह न सिर्फ अच्छा होगा, बल्कि प्रकृति से नई पीढ़ी की दूरी कम करने में मददगार भी होगा। हालांकि यही चीज अगर पाठ्यक्रम में शामिल हो गई, तो शायद नतीजे इतने अच्छे न रहें। तब यह सारा मामला इम्तिहान में दस-बीस नंबर वाला विषय बनकर रह जाएगा। जिन नंबरों को बच्चे किसी तरह रटकर पाने की कोशिश करते दिखेंगे। जरूरी है कि बच्चों को व्यावहारिक ज्ञान दिया जाए, बहुत कुछ वैसे ही, जैसे पहले दिया जाता था।

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