मनुष्य कहाँ तक जिम्मेदार है सूखे के लिये

देश में सूखे कीं वर्तमान स्थिति, खासकर महाराष्ट्र :

  • देश के दस राज्यों के 246 जिले पिछले साल से ही सूखे की चपेट में हैं
  •  इस साल महाराष्ट्र में सूखे का कहर कुछ ज्यादा है। राज्य 1972 के बाद सबसे भीषण सूखे की चपेट में है और यहां के तिरालीस हजार गांवों में से 27,723 गांव सूखाग्रस्त घोषित किए जा चुके हैं।
  • तालाब, नदियां, नाले, कुएं सभी से पानी गायब हो गया है। राज्य में सिंचाई के पानी की किल्लत तो पहले से थी अब पीने का पानी भी मुहाल होता जा रहा है। कई जगहों पर पानी के घड़ों की कतार एक किलोमीटर से भी लंबी हो गई है।

सूखे के प्रकार

  1. जलवायुक सूखा (Meteorological Drought):पानी के कम बरसने यानी सामान्य से 25 फीसदी कम बारिश को ही जलवायुक सूखा   कह्ते है।
  2. जल विज्ञानी सूखा(Hydrological Drought) : अगर हम जितनी बारिश हुइ है उसको भी  सिंचाई की जरूरत के लिए रोककर रखने का इंतजाम नहीं कर पाए तो उसे हाइड्रोलॉजिकल ड्रॉट यानी जल विज्ञानी सूखा कहते हैं
  3. कृषि सूखा (Agricultural Drought):  उपर्युक्त दोनों सूखे न भी पड़े, लेकिन अगर हम खेतों तक पानी न पहुंचा पाएं, तब भी सूखा ही पड़ता है, जिसे कृषि सूखा कहा जाता है। 


 

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महाराष्ट्र  का यह सूखा  प्राकृतिक है या मानवोजनित

  • राज्य में देश के छत्तीस फीसद बांध हैं फिर भी यह बार-बार सूखे की चपेट में आता है
  • राज्य में सूखे की विभीषिका बढ़ाने में गन्ने की खेती ने खलनायक की भूमिका निभाई है
  • सूखे की स्थिति में भी राज्य की चीनी मिलें नदियों से पानी खींच रही हैं।
  • अस्सी फीसद नकदी (cash crops) फसलें पानी की किल्लत वाले इलाकों में उगाई जा रही हैं।
  •  एक चीनी मिल जो प्रतिदिन ढाई हजार टन गन्ने की पेराई करती है उसे हर रोज औसतन पचीस लाख लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। राज्य में सबसे ज्यादा चीनी मिलें शोलापुर जिले में हैं, जहां साल में महज 19.3 सेमी बारिश होती है।

जल संकट

  • बढ़ती आबादी, उपभोक्तावादी जीवन शैली, खेती की आधुनिक तकनीक, औद्योगीकरण, नगरीकरण, वैश्विक तापवृद्धि, बारिश के मिजाज में बदलाव जैसे कई कारण जिम्मेदार हैं। इससे जहां एक ओर मांग में लगातार बढ़ोतरी हो रही है वहीं पानी के स्रोत लगातार सिकुड़ रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप पानी की आपूर्ति प्रभावित हो रही है।
  • जल संकट का दूसरा पहलू यह है कि वह तेजी से प्रदूषित हो रहा है। देश में हजारों गांव ऐसे हैं, जहां पानी में आर्सेनिक, फ्लोराइड, सल्फाइड, लोहा, मैगनीज, नाइट्रेट, क्लोराइड, जिंक और क्रोमियम की मात्रा अधिक पाई गई है। दरअसल, हरित क्रांति के दौरान किसानों ने खेतों में जिस अंधाधुंध तरीके से रासायनिक खादों और कीटनाशक दवाइयों का इस्तेमाल किया, उसका बुरा असर अब जमीन के नीचे के पानी पर भी दिखाई दे रहा है।
  •  इसके अलावा नदियों में औद्योगिक कचरा फेंके जाने, प्लास्टिक और दूसरे प्रदूषक पदार्थों के जमीन के भीतर दब कर सड़ने-गलने की वजह से भी भूजल लगातार प्रदूषित होता गया है।
  • शीतल पेय और बोतलबंद पानी के कारोबार तथा कपड़ों की रंगाई-धुलाई करने वाले कारखानों ने भी भूजल दोहन और प्रदूषण को बढ़ाया। एक बोतल (250 मिलीग्राम) कोक बनाने में बीस लीटर पानी बरबाद होता है और शरीर में जाने के बाद हजम होने के लिए नौ गुना पानी और लगता है। इतना ही नहीं, शीतल पेय कंपनियां पानी, खासकर भूजल का बेजा इस्तेमाल करती हैं।
  • आज पानी का संकट पिछले पचास वर्षों के दौरान पानी की खपत में हुई तीन गुना बढ़ोतरी का नतीजा है।
  • भारतीय संदर्भ में पानी की कमी को महामारी की शक्ल देने का श्रेय हरित क्रांति को दें तो कोइ अतिशयोक्ति नहि होगि । इसका कारण है कि हरित क्रांति के दौर में क्षेत्र विशेष की पारिस्थितिक दशाओं की उपेक्षा करके फसलें ऊपर से थोपी गर्इं जैसे महाराष्ट्र में गन्ने की खेती।
  • राज्य सरकार ने गन्ने के बढ़ते रकबे को रोकने के बजाय, गन्ने की सिंचाई खेत भरने के बजाए ड्रिप विधि से करने की शुरुआत की। यद्यपि ड्रिप सिंचाई सूखा रोकने में प्रभावी है, लेकिन यह तभी कारगर होगी जब चीनी मिलों और गन्ने के रकबे को पुनर्वितरित कर सूखे इलाकों से बाहर ले जाया जाए।
  • वाटरशेड (Watershed) कार्यक्रम की विफलता : पिछले एक दशक में वाटरशेड प्रबंधन पर साठ हजार करोड़ रुपए की भारी-भरकम राशि खर्च करने के बावजूद जल संरक्षण में कोई प्रगति नहीं हुई। जनभागीदारी न रहने के कारण इन कार्यक्रमों में जम कर भ्रष्टाचार हुआ और वे पूरे भी नहीं हुए।
  • पानी का तेजी से बढ़ता अदृश्य या वर्चुअल निर्यात: किसी कृषि उपज या औद्योगिक उत्पाद को तैयार करने में जितने पानी की खपत होती है उसे वर्चुअल वाटर कहा जाता है। घरेलू जरूरतों के लिए तो अधिक पानी की खपत वाली वस्तुओं के उत्पादन को तर्कसंगत ठहराया जा सकता है, लेकिन इनका निर्यात किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। इसका कारण यह है कि जब ये कृषि उत्पाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचे जाते हैं तो इनको पैदा करने में लगे पानी का भी अदृश्य कारोबार होता है, लेकिन उसका कोई मोल नहीं होता। सबसे बड़ी बात यह है कि एक बार इलाके से निकलने के बाद यह पानी दुबारा उस इलाके में नहीं लौटता है।

दोषपूर्ण कृषि व्यवस्था व फसले

  • गन्ने की खेती के बढ़ते प्रचलन से ज्वार, बाजरा, दलहनी और तिलहनी फसले उपेक्षित हुर्इं, जिससे पशुचारे का संकट पैदा हो गया है।
  • फिर मोटे अनाजों के लिए अनुकूल जमीन पर नहरों के माध्यम से गन्ने की खेती से लवणता की समस्या गंभीर हुई और सैकड़ों हेक्टेयर जमीन बंजर बन गई।
  • No agro ecological/ agro climatological farming: पानी की कमी वाले इलाकों में अनाज उगाने पर पानी की प्रचुरता वाले इलाकों की तुलना में दो गुने पानी की खपत होती है। उदाहरण के लिए पंजाब में जहां एक किलो धान पैदा करने में 5389 लीटर पानी की खपत होती हैं, वहीं पश्चिम बंगाल में यह अनुपात महज 2713 लीटर है। इसका कारण पानी की कमी वाले इलाकों का ऊंचा तापमान, अधिक वाष्पीकरण, मिट्टी की दशा और अन्य जलवायु दशाएं हैं।

ताकतवर गन्ना व चीनी लॉबी और सरकार

राज्य के सिंचाई विभाग ने पानी की कमी वाले इलाकों में तथा गन्ने कि खेती के नुक्सान को देखते  हुए नई चीनी मिल खोलने पर रोक का सुझाव दिया था, लेकिन ताकतवर गन्ना और चीनी लॉबी सरकार को ऐसा नहीं करने दे रही है। इसी का नतीजा है कि 1999 में जहां राज्य में 119 चीनी मिलें थी, वहीं आज इनकी संख्या दो सौ से ज्यादा हो गई है

क्या करना चहिये

जल संकट से तभी मुक्ति मिलेगी, जब हम पानी के वास्तविक मोल को पहचाने और खेती-किसानी से लेकर खान-पान तक में पानी बचाने वाली तकनीक को अपनाएं और कुदरत के साथ सह अस्तित्व बनाए रखें। इस मामले में हमें इजराइल से सीखना होगा जहां महज पचीस सेंटीमीटर बारिश के बावजूद सूखा नहीं पड़ता।

Source:Jansatta, unl

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