#Editorial द टेलीग्राफ
संदर्भ:- गिरती मांग, बाधित होता उत्पादन और नोटबंदी को अमल में लाने की असल आर्थिक कीमत मिलकर एक बड़ा नुकसान बनाते हैं। नोटेबन्दी का नकारात्मक पहलू।
★नोटबंदी का पूरा आर्थिक असर साफ होने में अभी कुछ समय लगेगा. एक चिंता यह जताई जा रही है कि इस कदम का इस वर्ष और 2017-18 में देश की आर्थिक प्रगति पर क्या प्रभाव होगा. अगर हम मान लें कि जमा नकदी का एक हिस्सा और सारे फर्जी नोट बेकार हो जाएंगे तो साफ है कि आबादी का जो वर्ग बैंकों तक नहीं पहुंचेगा उसके पास रखी मुद्रा के भंडार में कमी आएगी.
★ बैंकों का जमा बढ़ेगा लेकिन, यह मुद्रा भंडार में आई गिरावट से कम होगा. यानी अर्थव्यवस्था में उपलब्ध नकदी की मात्रा में कमी आएगी. पूरी संभावना है कि रिजर्व बैंक नकदी की उपलब्धता बढ़ाएगा और अगले कुछ महीनों में कर्ज पर ब्याज की दरें गिरेंगी. लेकिन क्या इससे निवेश की रफ्तार बढ़ेगी?
★शायद नहीं क्योंकि कारोबार तब भी नोटबंदी से पैदा हुई उथल-पुथल से जूझ रहे होंगे और उन्हें यह चिंता भी होगी कि संपत्ति या पैसे पर अगली सर्जिकल स्ट्राइक जाने कब और कैसे हो जाए. यानी अगले कुछ समय तक सस्ता कर्ज भी प्रगति की रफ्तार पर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं डाल पाएगा.
★दूसरा असर छोटे-मोटे कारोबारियों और टैक्स और सरकारी निगरानी के दायरे से बाहर रहने वाले उस क्षेत्र पर होगा जिसे इनफॉर्मल सेक्टर कहा जाता है. भारत के कामगारों का करीब 80 फीसदी और सकल घरेलू उत्पाद का 45 फीसदी हिस्सा इसी क्षेत्र से आता है.
★यहां लंबे समय से नकद में ही काम होता रहा है और यह अब भी जारी है, भले ही सरकार ने लोगों के खाते खोल दिए हैं. दरअसल यह एक तरह से नौकरशाही के लिए टारगेट पूरे करने की कवायद थी जिसका लोगों के व्यवहार पर कोई खास असर नहीं पड़ा. इस क्षेत्र में जो उथल-पुथल मची है वह अगर शांत हुई भी तो ऐसा होने में भी बहुत लंबा समय लग सकता है.
★हो सकता है सरकार ने एक चोट में ही इस क्षेत्र को हमेशा के लिए पंगु बनाने जैसा काम कर दिया हो. इससे छोटे दुकानदारों पर ग्रहण लग सकता है और ज्यादा लिखा-पढ़ी वाले बाजारों की व्यवस्था उभर सकती है.
★तीसरा असर उपभोक्ता मांग पर होगा. जरूरी चीजों के अलावा सभी दूसरे उत्पादों की मांग गिरेगी क्योंकि इनका ज्यादातर हिस्सा कैश में ही खरीदा जाता रहा है. गरीब तबके से जरूरी चीजों की मांग भी गिरेगी क्योंकि अभी कई महीने तक उसे नकदी के संकट का सामना करना पड़ेगा. इसके अलावा अपना पैसा निकालने या नोट बदलवाने के लिए लोगों की जो लाइनें लग रही हैं उनका आकलन अगर वक्त और मानव संसाधनों की बर्बादी के लिहाज से करें तो पूरा देश इसकी एक असाधारण कीमत चुका रहा है.
★गिरती मांग, रुकता उत्पादन और इस कदम को अमल में लाने की असल आर्थिक कीमत जैसे ये सभी कारक मिलकर अर्थव्यवस्था में मंदी लाएंगे. यानी आर्थिक प्रगति की रफ्तार पर चोट पड़ेगी. लेकिन मुद्दा यह नहीं है कि क्या अब भारत सबसे तेजी से तरक्की करने वाली अर्थव्यवस्था के रूप में चीन से पीछे हो जाएगा. सवाल यह है कि क्या नोटबंदी के लक्ष्य इस तरह हासिल नहीं किए जा सकते थे कि सामाजिक नुकसान कम होता और नतीजे ज्यादा टिकाऊ।
यह भी पढ़ें: