विमुद्रीकरण अर्थात नोटबंदी अपने आप में एक बड़ा झटका था।अब रोचक प्रश्न यह है कि सुधार की गति क्या होगी तेज या धीमी? हालांकि संभावना तो धीमे सुधार की ही है|
- मौद्रिक :नौ नवंबर के बाद से नई मुद्रा का आगमन खासी धीमी गति से हो रहा है। कुछ जगहों पर तो लेनदेन में पुरानी मुद्रा भी चलती रही। अब नए नोट नजर नहीं आ रहे हैं| जनवरी की शुरुआत में जब भुगतान का वक्त होगा उस समय मुश्किल खड़ी हो सकती है। अगर वास्तव में पुराने नोटों को बदलना हो तो यह काम मई 2017 तक चलता लेकिन वास्तव में इतना अधिक समय नहीं लगेगा क्योंकि बैंक नोट प्रेस में 2,000 रुपये के नोट छापे जा रहे हैं और जो पुरानी नकदी बंद हुई है उनमें से सारी की सारी लेनदेन के लिए चलन में नहीं थी। लेकिन 2,000 रुपये के नोट के साथ छुट्टे की समस्या आती है। इस बीच नोटबंदी के चलते लोगों के व्यवहार में भी बदलाव आया है। अब हर कोई नोट जमा करके रखना चाहता है।
वर्ष 2008 में मौद्रिक नीति का प्रदर्शन अच्छा रहा था। आरबीआई ने समझदारी दिखाते हुए विनिमय दर की अनदेखी कर दी थी और दरों में कटौती के मामले में फुर्ती दिखाई थी। कम दरों और कमजोर रुपये की बदौलत अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने में मदद मिली थी। वर्ष 2016 और 2017 में मौद्रिक व्यवस्था में असुविधा पैदा हुई और मौद्रिक नीति का इसमें मददगार हो पाना मुश्किल नजर आया।
- निर्यात : सितंबर 2008 में लीमन ब्रदर्स के झटके के बाद मौसमी समायोजन के बाद गैर तेल क्षेत्र के निर्यात में सालाना 161 फीसदी की गिरावट आई थी। इस बार निर्यात की मांग में कमी आई है लेकिन कोई खास बदलाव देखने को नहीं मिल रहा है। इन सारी बातों ने घरेलू उत्पादन को प्रभावित किया है। नवंबर 2016 में यह गिरावट सालाना आधार पर 76 फीसदी थी। यह आंकड़ा आश्चर्यजनक रूप से ज्यादा है। खासतौर पर यह देखते हुए कि निर्यात मांग में कोई बदलाव नहीं आया है। इससे यह भी पता चलता है कि उत्पादन में अहम विसंगति पैदा हुई है।
- निवेश के मोर्चे पर :विमुद्रीकरण ने अनिश्चितता पैदा कर दी है क्योंकि इसकी वजह से वर्ष 2017-18 में अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन पर असर पडऩे की आशंका है। इससे यह भी पता चलता है कि नीतिगत स्तर पर नया जोखिम है: जबकि हम सोचा करते थे कि हमारे यहां ऐसे कदमों की गुंजाइश नहीं। वर्ष 2008 में भी व्यापक अनिश्चितता थी जिसने निवेश पर नकारात्मक असर डाला था। वित्त मंत्रालय, आरबीआई, सेबी और प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रमुख लोगों के लिए यह स्वर्णिम अवसर था जहां उनके कदमों ने देश की नीतिगत क्षमताओं की बेहतरी दिखाते हुए विश्वास बहाली में मदद की। इस बार विमुद्रीकरण ने आर्थिक नीति संबंधी नेतृत्व को क्षमता प्रदर्शन नहीं करने दिया।
- बैंकिंग : वर्ष 2008 में बैंकों की राजकोषीय गतिविधियां कुछ दिक्कत की शिकार रहीं। इसका पहला संकेत फंसे हुए कर्ज की समस्या के रूप में सामने आया था। तब देश भर में खाते खोलने, क्रेडिट कार्ड, आवास ऋण आदि का नीरस काम अबाध चलता रहा। इस बार बैंकों के अधिकांश कर्मचारी नकदी गिनने के काम में लगे हुए थे। ऐसे में कुछ महीनों तक देश की बैंकिंग सेवाओं की उत्पादकता बाधित रही। वृहद आर्थिक मंदी ने कार्पोरेट जगत के एनपीए की समस्या को और खराब कर दिया। ऐसे में नोटबंदी के चलते लोगों के देनदारी में चूक करने की आशंका बढ़ गई है।
- मांग को झटका : बड़ी कंपनियों में उत्पादन की योजना बनाने वाले अपने निर्णय बिक्री के अनुमान के आधार पर करते हैं। नौ नवंबर को देश भर की कंपनियों को अपने उत्पादन अनुमान संशोधित करने पड़े और इस आधार पर उत्पादन अनुमान भी। आंकड़े इस बात का समर्थन करते हैं। सितंबर 2008 में निर्यात की मांग प्रभावित हुई थी लेकिन देश में कुछ खास नहीं हुआ। यही वजह है कि सितंबर 2008 में वाहन उद्योग में अच्छी बिक्री हुई। अक्टूबर से दिसंबर तक बिक्री में गिरावट रही। आगे की उत्पादन योजना इसे देखकर बनी। इस बार नवंबर 2016 में बिक्री पर सीधे असर पड़ा। सस्ती वस्तुओं में इसका असर अधिक दिख रहा है। दोपहिया वाहनों की बिक्री में 169 फीसदी की गिरावट आई। जबकि तिपहिया वाहनों की बिक्री 37 फीसदी गिरी। उत्पादन से जुड़े प्रबंधक अनुमान लगाने में व्यस्त हैं कि आने वाले महीनों में और गिरावट आएगी।
बैंकों में ऋण देना कम हुआ है जिसका असर मांग पर पड़ेगा। अनिश्चितता बढ़ेगी और मार्जिन कम होने से कंपनियां निवेश कम करेंगी। तैयार माल बढ़ेगा और कंपनियां उत्पादन कम करेंगी। लब्बोलुआब यह कि इसका असर कर्मचारियों की छंटनी के रूप में सामने आएगा। इन हालात में कुछ अनुबंध भंग होंगे। कुछ फर्म बंद होंगी। हर कोई इस तूफान को झेलने का प्रयास कर रहा है लेकिन कुछ का विफल होना तय है। एनपीए संकट और गहरा होगा। वर्ष 2017 और उसके बाद भी इनका असर दिखेगा |
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