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आर्कटिक (उत्तरी ध्रुव के आसपास स्थित क्षेत्र) की बर्फ तेजी से पिघल रही है. पिछले तीन दशक के दौरान इस इलाके की समुद्री बर्फ में आधे से भी ज्यादा की कमी आ गई है.
· एक हालिया रिपोर्ट का अनुमान है कि इस तरह यह आर्कटिक 2040 तक बर्फविहीन हो जाएगा.
· पहले 2070 तक ऐसा होने की बात कही गई थी.
· भारत सहित सभी देशों को इसके नतीजों यानी बहुत ज्यादा बारिश या सूखे और समुद्र के उठते स्तर जैसी समस्याओं से निपटने के लिए तैयारी शुरू करनी चाहिए. साथ ही, इन देशों को उन प्रतिबद्धताओं के प्रति मजबूती भी दिखानी चाहिए जिसके तहत उन्हें अपनी अर्थव्यवस्था को इस तरह से बढ़ाने की जरूरत है कि उनका कार्बन का उत्सर्जन कम हो.
Effect of this:
Ø आर्कटिक में पिघलती बर्फ का सूखे, बाढ़ और लू की बढ़ती घटनाओं से सीधा संबंध है. इस इलाके में बढ़ती गरमी समुद्री धाराओं और हवाओं पर असर डालती है जिसके प्रभाव पूरी दुनिया के मौसम पर पड़ते हैं और इसमें मानसून भी शामिल है.
Ø इससे न सिर्फ फसलों के पैटर्न और खाद्य उत्पादन पर असर पड़ता है बल्कि पानी की कमी की समस्या और गंभीर होती है
Ø समुद्री बर्फ के पिघलने की रफ्तार तेज होने का मतलब यह भी है कि समुद्र का स्तर बढ़ेगा और मुंबई जैसे तटीय शहरों के लिए खतरा पैदा होगा. खतरा यह भी है कि बर्फ की तहों में हजारों साल से सुसुप्त अवस्था में पड़े हुए वायरस और बैक्टीरिया अब फिर सक्रिय होकर स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए नई चुनौतियां खड़ी कर सकते हैं.
Development at what cost?
आर्कटिक की बर्फ का पिघलना अभी तक वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के लिए ही चिंता का विषय रहा है. अब बाकी समुदायों को भी इससे चिंता होनी चाहिए. विकास जरूरी है लेकिन इसे इस तरह अंजाम देना होगा कि वह कार्बन डाइ ऑक्साइड कम निकले जो इस समय धरती को गर्म कर रही है.
पेरिस में हुए समझौते में जलवायु परिवर्तन पर जो प्रतिबद्धताएं जताई गई हैं वे वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को दो डिग्री से नीचे रखने के लिए नाकाफी हैं. देशों, शहरों और अर्थ जगत, सभी को अपनी कोशिशों का दायरा बढ़ाना होगा. अब पीछे हटने का समय नहीं है. इससे ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से निपटने के लिए किए जा रहे उपायों की प्रगति धीमी होगी. अब कोशिशें बढ़ाई नहीं गईं तो नुकसान बहुत बड़े हैं और इनकी मार सबसे ज्यादा उन पर पड़नी है जो सबसे ज्यादा गरीब हैं