गांगेय डाल्फिन : विलुप्ति की कगार पर खड़ा राष्ट्रीय जलीय जीव

- गांगेय डाल्फिन को गंगा की पारिस्थितिकी को संतुलित रखने के लिये आवश्यक माना गया है। डाल्फिन मूल रूप से समंदर में पाई जाती है। कुछ सालों पहले तक दुनिया में 88 प्रजातियों में से केवल 4 प्रजातियां ही नदियों के मीठे पानी में पाई जाती थीं, लेकिन मौजूदा समय में उनमें से 3 ही अपने अस्तित्व को बचाने में कामयाब रही हैं।

- वर्ष 2006 तक चीन की यांग्तजी नदी के मीठे पानी में बैजी नाम की डाल्फिन पाई जाती थी जो अब लुप्त हो चुकी है। अब गंगा को छोड़कर सिर्फ सिंधु एवं अमेज़न नदी में ही डाल्फिन पाई जाती है, जिसे भुलन और बोटा के नाम से जाना जाता है।

- गांगेय डाल्फिन हमारे देश का राष्ट्रीय जलीय जीव है। मालूम हो कि 1996 में गांगेय डाल्फिन को लुप्तप्राय प्राणी घोषित किया गया था। पर इसके संरक्षण के लिए गंभीर प्रयास नहीं किये जा रहे हैं। 1982 में इसकी आबादी 6000 थी, जो घटकर अब 1200 रह गई है। गांगेय डाल्फिन को जुझारू जलीय जीव माना गया है क्योंकि प्रतिकूल माहौल में भी यह जीने का माद्दा रखती है। तापमान में होने वाले बड़े उतार-चढ़ाव के साथ यह आसानी से सामंजस्य बैठा लेती है।

=>कहाँ -कैसे पाई जाती है :-

Habitat Requirement

  • नेपाल में बहने वाली करनाली नदी में यह 5 डिग्री सेल्सियस तापमान को सह लेती है, वहीं बिहार और उत्तर प्रदेश में बहने वाली गंगा में यह 35 डिग्री सेल्सियस तापमान का आसानी से सामना कर लेती है। आमतौर पर यह गंगा और उसकी सहायक नदियों के संगम पर पाई जाती है, ताकि मुश्किल की घड़ी में यह सहायक नदियों में अपना रैन-बसेरा बना सके।
  • गांगेय डाल्फिन को छिछले पानी एवं संकरी चट्टानों में रहना पसंद नहीं है। इस तरह के स्वभाव के कारण यह गंगा की सहायक नदियों जैसे रामगंगा, यमुना, गोमती, राप्ती, दिखो, मानस, भरेली, तिस्ता, लोहित, दिसांग, दिहांग, दिवांग, कुलसी आदि नदियों में रहना पसंद करती है। गंगा में पाये जाने वाली डाल्फिन का प्रचलित नाम सोंस है।
  • यह मीठे पानी में पाया जाने वाला जलचर है। वैसे, यह नदी और समंदर के मिलनस्थल पर अवस्थित खारे पानी में भी रह सकती है, लेकिन समंदर में रहना इसे पसंद नहीं है। प्रत्येक 30 से 120 सेकेंड के बाद इसे सांस लेने के लिए पानी की सतह पर आना पड़ता है।

=>लुप्तप्राय और संकटशील कैसे ?
- वर्तमान में गांगेय डाल्फिन का वास भारत के गंगा, ब्रह्मपुत्र, मेघना, बांग्लादेश के करनाफुली, सांगू और नेपाल के करनाली व सप्तकोशी नदी में है। कभी यह नदियों के सभी हिस्सों में विचरण करती थी, लेकिन 1966 में नरौरा, 1975 में फरक्का और 1984 में बिजनौर में बैराज बनने से इसका घर तीन भागों में बंट गया।

1- बैराजों ने गंगा को निचले, मध्य और अगले भागों में बांट दिया है, जिसकी वजह से गांगेय डाल्फिनों के लिये गंगा के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक जाना मुश्किल हो गया है। नरौरा परमाणु संयंत्र एवं कानपुर में कारखानों से निकलने वाले रासायनिक कचरे के गंगा में प्रवाहित होने से उसके निचले में रहने वाली गांगेय डाल्फिनें धीरे-धीरे मर गईं।
- बैराज निर्माण से गंगा का प्रवाह बहुत सी जगहों पर रुक सा गया है। नदी में पानी का स्तर कम होने के कारण गांगेय डाल्फिन को अपना स्वाभाविक जीवन जीने में कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। गाद के कारण नदी उथली हो गयी है।
2- गांगेय डाल्फिन का शिकार मौजूदा समय में शिकारियों का पसंदीदा शौक है। इसका शिकार मीट, तेल, चारे (कैटफिश को पकड़ने के उद्देश्य से) आदि के लिये किया जाता है। बांग्लादेश में गर्भवती महिलाओं द्वारा गांगेय डाल्फिन का तेल पीने की भी परंपरा है। माना जाता है कि तेल पीने से शिशु स्वस्थ एवं सुंदर होता है।
3- विगत वर्षों में हल्दिया से पटना और बाद में वाराणसी तक कार्गो स्टीमर चलने लगे। कोलकाता में तो अभी भी हुगली नदी में फेरी व स्टीमर का जबरदस्त ट्रैफिक है। नदी पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर पटना, कोलकाता आदि शहरों में स्टीमर व फेरी चलाये जा रहे हैं, जिसके कारण इनसे टकराकर गांगेय डाल्फिन घायल हो जाती हैं या फिर मर जाती हैं।

4- इसके अतिरिक्त ध्वनि प्रदूषण से उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
5- गंगा को कूड़ादान समझने के कारण इसमें खाद, पेस्टीसाइड, औद्योगिक एवं घरेलू कचरे का संकेंद्रण तेजी से बढ़ रहा है। जलीय प्रदूषण के कारण इसकी आयु कम हो रही है। आज जरूरत है इस जलीय जीव को संरक्षित करने की, जिसके लिए गंगा को पहले बचाना होगा।

=>समाधान के बिन्दु :-

- इस परिप्रेक्ष्य में डाल्फिन पार्क की स्थापना की जा सकती है। मछुआरे इस बात का ख्याल रखें कि वे मछली संकेन्द्रण वाले इलाकों में मछली नहीं पकड़ें। शिकारियों पर शिकंजा कसा जाये। साथ ही, कांबिंग ऑपरेशन भी चलाया जाए ताकि गांगेय डाल्फिन का शिकार करने से शिकारी गुरेज करें।
केंद्र व राज्य सरकार को भी इस संबंध में सकारात्मक भूमिका का निर्वाह करना चाहिए। सिर्फ, डाल्फिन दिवस व सप्ताह मनाने से सकारात्मक परिणाम नहीं निकलेंगे। अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब गांगेय डाल्फिन भी चीन की बैजी डाल्फिन की तरह लुप्त हो जायेगी।

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