- जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर पेरिस में इस साल दिसंबर में होने वाले महासम्मेलन से पहले भारत ने एक व्यापक व न्यायसंगत करार करने के प्रति अपनी वचनबद्धता दोहराई है।
- भारत ने संयुक्त राष्ट्र को आश्वासन दिया है कि वह वर्ष 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 33 से 35 फीसदी कटौती करेगा। यह कमी 2005 को आधार मानते हुए की जाएगी। इसके साथ ही भारत ने 2030 तक नॉन फॉसिल फ्यूल सोर्सेस के जरिए 40 फीसदी बिजली उत्पादन का भी फैसला लिया है।
- भारत ने आईएनडीसी में आठ गोल तय किए हैं। इनमें सबसे महत्वाकांक्षी लक्ष्य वर्ष 2030 तक गैर जीवाश्म ऊर्जा का हिस्सा बढ़ाकर 40 प्रतिशत करने का है। बता दें कि ये फ्यूल परंपरागत फ्यूल सोर्सेस से तैयार किए गए फ्यूल की तुलना में कम पॉल्यूशन फैलाते हैं।
- इसके अलावा इतने जंगल विकसित किए जाएंगे, जो 2.5 से 3 टन कार्बन डाइ ऑक्साइड सोखेंगे। शुरुआती अनुमान के मुताबिक, भारत को इसके लिए करीब 14 लाख करोड़ रुपए खर्च करने पड़ेंगे।
- हालांकि, भारत पहले ही कह चुका है कि वह 2022 तक 1 लाख 75 हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन सोलर और विंड एनर्जी के जरिए करेगा। भारत ने यह लक्ष्य पेरिस में प्रस्तावित विश्व पर्यावरण संधि के लिए ‘यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) के सामने रखा। इसे इंटेंडेड नेशनली डिटरमाइंड कांट्रिब्यूशन (आईएनडीसी) नाम दिया गया है।
इसमें जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियों व दुष्प्रभावों से निटपने की विस्तृत जानकारियों व उपायों का उल्लेख है।
- पेरिस में 30 नवंबर से 11 दिसंबर तक होने वाले जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के लिए सभी देशों को अपना-अपना आईएनडीसी देना जरूरी था। लिहाजा अगले डेढ़ दशक में उत्सर्जन को करीब एक-तिहाई घटाने का वायदा पूरा हो सकता है। पर इस दौरान गैर-जीवाश्म ईंधन से चालीस प्रतिशत विद्युत उत्पादन करने का लक्ष्य व्यावहारिक नहीं लगता।
- खासकर तब, जब स्वच्छ ऊर्जा पर अतिशय जोर देने और इसके लिए समुचित संसाधन होने के बावजूद अमेरिका में 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन से विद्युत उत्पादन कुल उत्पादन के तीस फीसदी से अधिक नहीं हो पाएगा।
- चीन दुनिया का सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाला (करीब 25 प्रतिशत) कार्बन डाइ ऑक्साइड छोड़ने वाला देश है। यहां जैव ईंधन की सबसे ज्यादा खपत है। जबकि औद्योगिक देशों में प्रति व्यक्ति के हिसाब से अमेरिका दूसरे नंबर पर (लगभग 19 फीसदी) सबसे अधिक प्रदूषण फैलाता है। तीसरे नंबर पर भारत (करीब छह फीसदी) है। यहां तक कि पर्यावरण बचाने की वकालत करने वाले देश जर्मनी और ब्रिटेन की बात है तो वे भी दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले शीर्ष 10 देशों में शुमार हैं।
=> भारत के सामने चुनौतियां :-
- हालांकि इस घोषणा से भारत के सामने कई चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं। यहां अभी गरीबी है और भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन भी बेहद कम, यानी करीब 2.5 टन है जबकि अमेरिका और चीन का कार्बन उत्सर्जन प्रति व्यक्ति 12 टन है।
- भारत के पास दुनिया की कुल भूमि का 2.5 प्रतिशत हिस्सा है जबकि उसकी जनसंख्या विश्व की कुल आबादी की साढ़े 17 प्रतिशत है। उसके पास दुनिया का कुल साढ़े 17 प्रतिशत पशुधन है। भारत की 30 प्रतिशत आबादी अब भी गरीब है, 20 प्रतिशत के पास आवास नहीं है, 25 प्रतिशत के पास बिजली नहीं है जबकि करीब नौ करोड़ लोग पेयजल की सुविधा से वंचित हैं। देश की खाद्य सुरक्षा के दबाव में भारत का कृषि क्षेत्र कार्बन उत्सर्जन घटाने की हालत में नहीं है।
- भारत में होने वाले कार्बन उत्सर्जन में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी 17.6 फीसदी है। कार्बन उत्सर्जन में कृषि क्षेत्र की कुल हिस्सेदारी में सबसे बड़ा हिस्सा पशुओं का है। पशुओं से करीब 56 फीसदी उत्सर्जन होता है।
- सबको भोजन देने की सरकार की योजना के अंतर्गत राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बन चुका है। इसके तहत देश की 67 फीसदी आबादी को अति रियायती दर पर अनाज उपलब्ध कराया जाना है। इसके लिए 6.10 करोड़ टन से अधिक खाद्यान्न की जरूरत हर साल पड़ेगी।
- दूसरी बड़ी चुनौती भारत की असिंचित खेती की है, जो मानसून पर निर्भर है। मानसून के रूखे व्यवहार को जलवायु परिवर्तन से ही जोड़कर देखा जा रहा है।
- ऐसे में भारत ने एक संतुलित आईएनडीसी तैयार किया है। गौर करने वाली बात यह है कि अभी तक 85 प्रतिशत देश अपने राष्ट्रीय निर्धारित योगदान (ईएनडीसी) कर चुके हैं, लेकिन उनकी प्रतिबद्धता धरती के तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने से रोकने के लिए काफी नहीं है।
- भारत जैसे देश को अभी विकसित होना है और उसे गरीबी मिटानी है। ऐसे में लक्ष्य हासिल कर पाना कठिन प्रतीत होता है।