पर्यावरण असंतुलन और मानवीय गतिविशियों के चलते धरती के वन्य जीव जंतुओं और वृक्ष-वनस्पतियों की अनेक दुर्लभ प्रजातियां आज विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी हैं, इस गंभीर समस्या पर अपने विचार प्रकट करते हुए विलुप्ति के महत्वपूर्ण कारण पर चर्चा कीजियेI

०-० संयुक्त राष्ट्र पैनल की जलवायु परिवर्तन की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले कई वर्षो से विभिन्न जीव-जंतु व वनस्पतियां धरती के बढ़ते तापमान के प्रति त्वरित प्रतिक्रिया व्यक्ति कर रहे हैं, यदि तापमान बढ़ने का क्रम इसी तरह जारी रहा तो अगले पचास वर्षो में जीव-जंतुओं एवं वनस्पति जगत की हजारों प्रजातियों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा.

- पर्यावरण एवं जैव विज्ञानियों ने तकरीबन डेढ़ हजार से अधिक प्रजातियों का अध्ययन कर यह निष्कर्ष दिया है कि यदि पारिस्थितिकी न सुधरी तो सन 2050 तक ये प्रजातियां या तो समूल विनष्ट हो जाएंगी या फिर अपने अस्तित्व के संकट से गंभीर रूप से जूझ रही होंगी.
- प्रकृति संरक्षण के लिए काम कर रही संस्था ‘इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर (आइयूसीएन) का अध्ययन बताता है कि पिछली पांच शताब्दियों में आठ सौ से ज्यादा वन्य जीव एवं वनस्पतियों की दुर्लभ प्रजातियां नष्ट हो चुकी हैं, जबकि 17 हजार प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं. 
- इस अध्ययन के अनुसार वर्ष 1500 से अब तक 869 किस्में लुप्त हो चुकी हैं एवं 290 गंभीर रूप से खतरे में हैं. इनमें कुछ ऐसी प्रजातियां हैं जिनकी कमी से पर्यावरण को अत्यधिक नुकसान पहुंच रहा है. इनमें से एक-तिहाई जलचर हैं, एक चौथाई स्तनधारी.

- दूसरी ओर, जलवायु परिवर्तन औषधीय वनस्पतियों के लिए बड़ा खतरा बन रहा है. वैश्विक ताप में वृद्धि और अत्यधिक दोहन के कारण हिमालयी रेंज की 800 मेडिसिनल गुणों युक्त प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी हैं.
- दुर्लभ होती जा रही इन वनस्पतियों का नाम रेड बुक में दर्ज हो गया है. यदि औषधीय पौधों के संरक्षण की पहल नहीं हुई तो आयुर्वेद चिकित्सा पर संकट आ जाएगा. पर्यावरणविदें का कहना है कि धरती पर मौजूद 18 लाख प्रजातियों में से सिर्फ 2.7 प्रतिशत प्रजातियों का ही विश्लेषण किया गया है तथा इनमें से विलुप्त प्रजातियों के आंकड़े हमें इनके विलुप्त होते अस्तित्व का एहसास भर कराते हैं जबकि वास्तविकता तो कहीं अधिक भीषण व विकराल है.

=> भारत की स्थिति :- (UPSC Pre- 2013, 2014)
- आइयूसीएन के अनुसार भारत में पाये जाने वाले 124 से अधिक स्तनधारी जीव अपने अस्तित्व के लिए संकट का सामना कर रहे हैं. अपने देश में स्तनधारी जीवों की 49 प्रजातियों को; जिनमें बाघ, लंगूर, चमगादड़, हिरण आदि शामिल हैं, को भी खतरा पैदा हो गया है. 
- ग्लोबल वार्मिंग से भारत के पश्चिमी घाट में भी जीव-जतुंओं की कई प्रजातियां तेजी से समाप्त हो रही हैं. बढ़ते तापमान के कारण भारत के मैदानी क्षेत्रों में शीत ऋतु की अवधि सिमटती जा रही है.
- इससे जल स्तर में कमी आ रही है और चारगाहों का आकार भी घटता जा रहा है. प्राकृतिक घास के मैदान सिमटने से रेगिस्तान का क्षेत्रफल बढ़ रहा है. वर्तमान में देश की लगभग पचास फीसद जैव विधिता पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं. अगर तापमान में वृद्धि इसी तरह जारी रही तो अगले कुछ वर्षो में पच्चीस फीसद पौधों और जीवों की प्रजातियां पूरी तरह से समाप्त हो सकती हैं.

- अनियमित ऋतुचक्र से उत्पन्न असमय बारिश के कारण वष्रा ऋतु में उत्पन्न होने वाले टिड्डे, मेढ़क, सांप आदि जीवों एवं पादपों का जीवनचक्र भी प्रभावित हुआ है क्योंकि ये सभी घटक आपस में एक-दूसरे पर आश्रित एवं निर्भर हैं जैसे टिड्डे को मेंढक खाते हैं एवं मेंढ़क को सांप. वर्तमान समय में काले नाग की कई प्रजातियों में भारी कमी आ गई है.

- इसके अतिरिक्त चिंपाजी, गुरिल्ला और बंदरों की कई प्रजातियां भी खत्म हो रही हैं. ह्वेल, डाल्फिन तथा समुद्री गाय भी गायब होती जा रही हैं.

- पक्षियों की अनेक प्रजातियां नष्ट हो चुकी हैं. सव्रेक्षण से पता चलता है कि पिछले पांच सौ वर्षो में पक्षियों की 130 प्रजातियों का सफाया हुआ है. आशंका जताई जा रही है कि इस सदी के अंत तक इनकी करीब 1250 प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी. खुले आसमान में तेज उड़ाने भरने वाले तोते अब केवल चिड़ियाघरों की शोभा बढ़ा रहे हैं. उन्मुक्त ढंग से उन्हें उड़ते देखना अब सपना रह गया है. अनेक पक्षी अब केवल चित्रों में दिखाई देते हैं. उनका अस्तित्व समाप्त हो गया है.

- पर्यावरण एवं पक्षी विशेषज्ञों ने स्वीकार किया है कि सुदूर आकाश में उड़ने वाले गिद्धों की अनेक प्रजातियां खत्म हो चुकी हैं. वाराणसी में 80 के दशक में गिद्धों की संख्या दो हजार से अधिक आंकी जाती थी, जबकि इन दिनों यह संख्या दस से भी नीचे पहुंच चुकी है. वाराणसी तो केवल एक उदाहरणभर है.
- इसी तरह विश्व के अन्य देशों में भी गिद्ध विलुप्त हो रहे हैं. दो-एक दशक पूर्व हम देखते थे कि कहीं कोई लावारिस शव खुले में होता था तो गिद्ध सैकड़ों की संख्या में आकर उसका भक्षण कर जाते थे. मरे हुए जीव-जंतु ही गिद्धों का मुख्य आहार होता है. वे सड़े मांस को भी खाकर आसानी से पचा जाते हैं. इनसे न सिर्फ वायुमंडल में संड़ाध रुकती थी वरन संक्रामक रोग भी कम फैलते थे. परंतु जब से गिद्ध कम हुए हैं, स्थितियां विषम हो गई हैं.

=>"प्रजातियों / जैवविविधता के अस्तित्व पर संकट के कारण (Imp In UPSC) :-

-१. जनसंख्या में तेजी से बढ़ोतरी, 
२.तीव्र गति से बढ़ती औद्योगिक इकाइयां, 
३. प्राकृतिक स्थलों के विनाश, 
४. अंधाधुंध विकास कार्य और 
५. संसाधनों के अविवेकपूर्ण दोहन

उपरोक्त कारकों की वजह से वपस्पतियों और वन्य जीवों के अस्तित्व पर संकट है.
- लोभ और उपभोगवादी दृष्टिकोण के कारण कई पेड़ों की प्रजातियों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं. वहीं, वन्य जीवों के संरक्षण के लिए हर स्तर पर प्रयास किए जाने की जरूरत है

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