भारत उन कुछ देशों में शामिल है, जिनने समय रहते कृषि-जैव विविधता के महत्त्व को समझा है और पर्याप्त पहले ही उपचार उपायों की शुरुआत की है। कृषि-जैव विविधता के संरक्षण के काम में लगे संस्थानों के अलावा भारतीय किसानों ने भी खाद्यान्न और अन्य फसलों की परंपरा संरक्षित रखने में अहम भूमिका निभाई है। उदाहरण के तौर पर
- दक्षिण भारत का कोनामणि चावल, असम का अग्निबोरा धान और गुजरात का भेलिया गेहूं कुछ ऐसी ही अनगिनत परंपरागत फसलें हैं, जिनका अस्तित्व किसान समुदायों ने बचाए रखा है।
- भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की अगुआई में देश की राष्ट्रीय कृषि शोध प्रणाली ने करीब 50 साल से अधिक पहले कृषि जैव-विविधता संरक्षित करने के लिए अनूठी मुहिम शुरू कर दी थी।
- भारत का नैशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेस एक ऐसा अनूठा संस्थान है जो भविष्य की पीढिय़ों के लिए पादपों का जीव द्रव्य संरक्षित करता है। संस्थान पादपों के लिए राष्ट्रीय जीन बैंक चलाता है। उसके पास इस समय दीर्घ अवधि तक संरक्षित रखने के लिए 4,29,000 पादप जीव द्रव्य के नमूने हैं। पशुओं, मछली, कीट-पतंगों और सूक्ष्म जीवों के जीन संसाधन संरक्षित करने के लिए इसी तरह की सुविधाएं विकसित की गई हैं। इन संस्थानों की एक खूबी यह है कि बीज भंडार बढ़ाने के लिए ये हमेशा काम करते रहते हैं। इसके लिए वे जंगलों से लेकर दूरदराज के इलाकों में जाते हैं और अभियान चलाते हैं।
दुनिया के देश फसलों की नई और संकर किस्में विकसित करते रहे हैं और इसके लिए वे ऐतिहासिक रुप से एक दूसरे पर निर्भर रहते आए हैं। जलवायु परिवर्तन के खतरे, खाद्य विविधता के विस्तार की जरूरत और उपभोक्ताओं की बदलती पसंद पूरी करने के मद्देनजर देशों के बीच इस तरह की निर्भरता दिनोदिन बढ़ती जाएगी। इस सन्दर्भ में भारत एक अग्रणी भूमिका भी निभा सकता है