यदि अधिकांश भारतीयों के भाग्य का फैसला अभी भी मॉनसून की मेहरबानी पर ही निर्भर करता है तो काफी हद तक इसकी वजह यह भी है कि हमने जल संरक्षण के पंरपरागत तौरतरीकों को भुला दिया है।
- पर्यावरण विद अनुपम मिश्र ने तेजी से बढ़ते शहरों में गांवों से जल आपूर्ति की नादानी को लेकर परंपरागत तरीकों की प्रासंगिकता पर रोशनी डाली थी। उनके मुताबिक 'स्मार्ट सिटी' की परिभाषा में वही शहर माकूल बैठता है, जो अपने जल संसाधनों का कुशलता से प्रबंधन करता है।
- दिल्ली हवाई अड्डे का टी-3 टर्मिनल तकरीबन 10 तालाबों को ध्वस्त करके बनाया गया है और उसका एक दुष्परिणाम यह है कि मॉनसून के दौरान यहां अक्सर जल भराव हो जाता है। (चेन्नई हवाई अड्डा भी हाल में तकरीबन डूब गया था।) दूसरी ओर फ्रैंकफर्ट हवाई अड्डे को 15 साल पहले पानी के एवज में भारी हर्जाना चुकाने का आदेश दिया गया था, उसने जल संरक्षण की दीर्घकालिक योजनाएं बनाईं, आज वह पानी की जरूरत के पैमाने पर आत्मनिर्भर है।
- एक व्यंग्य पानीकी कमी पर : एक समय गुजरात के सूखा प्रभावित इलाकों में समंदर के रास्ते पानी पहुंचाया जाता था। फिर मराठवाड़ा के लातूर में रेलगाड़ी के जरिये भेजे गए पानी की तस्वीरें सभी के जेहन में ताजा हैं। चूंकि हम वाइब्रेंट गुजरात से वाइब्रेंट इंडिया की ओर बढ़ चुके हैं तो एक दिन पानी भी शायद हवाई जहाज के जरिये पहुंचाया जाएगा।
- जैसलमेर जिले की मिसाल :रेगिस्तान में होने के बावजूद यह उन हालात से बच गया, जिनसे लातूर दो-चार हो रहा था। जैसलमेर ने उस परंपरागत ज्ञान का उपयोग किया। मसलन रेत के नीचे मौजूद जिप्सम नमी को व्यर्थ जाने से रोकता है। अगर आप रेत को थोड़ा उलीचें तो उसमें आपको नमी का अहसास होगा। हम आखिर कहां गलत रह गए?
- 1960 के दशक में दुनिया नई करवट ले रही थी और भाखड़ा नंगल बांध जैसे भीमकाय बांधों का निर्माण इस बुनियाद पर किया गया कि ऐसी परियोजनाओं के जरिये मॉनसून की अनिश्चितताओं से पार पाया जा सकता है और इस तरह हम वर्षा जल के संरक्षण के परंपरागत तौर तरीकों को भुलाते गए।
- राह से भटकने की एक और मिसाल 'मक्के की रोटी' मार्का पंजाब में नजर आती है, जिसने अपनी परंपरागत फसलों के बजाय गेहूं और धान जैसी फसलों (वह भी खराब गुणवत्ता वाली) का रुख कर लिया, जिनमें बेतहाशा पानी की जरूरत होती है और इसका नतीजा यही निकला कि पांच वर्षों के अंदर जमीन का सीना सूखता गया! पानी को लेकर लड़ाई की बानगी देखनी है तो जरा हरियाणा और पंजाब की नहर बनाने पर तल्खी को देखिए, जहां दोनों राज्यों और केंद्र में समान विचारों वाली सरकार के बावजूद समाधान दुश्वार है।
- बाढ़ की विभीषिका के समग्र विश्लेषण में मिश्र का ज्ञान बेजोड़ था। बिहार में अक्सर प्रलयंकारी बाढ़ की वजह बनने वाली कोशी नदी पर उन्होंने काफी अध्ययन किया था। वर्ष 2008 में आई विनाशकारी बाढ़ के बाद उन्होंने कोशी के प्रवाह के नियंत्रण को इसका बड़ा कारण बताया था। भारत-नेपाल सीमा पर बांध कोशी के लिए अपेक्षित रूप से उपयोगी साबित नहीं हुआ।
- बाढ़ का अनुमान लगाया जा सकता है लेकिन फिर भी वे अचानक से तबाही का सबब बनती हैं। अगर सरकार इलाके की जानकारी रखने वाले मल्लाहों और आबोहवा से वाकिफ लोगों को राहत कार्यों में लगाए तो यह महंगे हेलीकॉप्टर के जरिये मिलने वाली मदद से सस्ता और ज्यादा प्रभावी हो सकता है। पहले तमाम इलाकों में प्रचुर प्राकृतिक और मानव निर्मित गड्ढे हुआ करते थे, जो बाढ़ के दौरान बचाने और सूखे में राहत दिलाने का सबब बनते थे। फिर कालांतर में अधिक से अधिक फसल उगाने के लिए वे काल के गाल में समाने लगे। मौजूदा दौर में जो बाढ़ आती है, उसकी रोकथाम के लिए ऐसे ठिकाने गायब हैं और बाढ़ सीधे मानव बस्तियों से टकराकर कोहराम मचाती है।
- मौजूदा दौर में नहर निर्माण से लेकर बांधों के अंबार तक पानी को लेकर होने वाले तमाम विमर्श में मिश्र का ज्ञान मूल्यवान साबित होगा। अगर आप इन मुद्दों से जुड़े फायदे और नुकसान का विश्लेषण करें तो बांधों के विरुद्घ उनका अभिमत अधिक प्रभावी होगा और पिछले 60 वर्षों के दौरान सिविल आभियांत्रिकी के दम पर बने बांध प्रश्नों के घेरे में आएंगे, जो मौजूदा दौर में अनुपयोगी से ज्यादा खराब हैं।