आरटीआइ यानी सूचना का अधिकार कानून। देश की आम जनता को सशक्त बनाने वाली अब तक की सर्वश्रेष्ठ और प्रभावी पहल। सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाने वाला हथियार। जनता के सरोकारों का प्रहरी। इस अस्त्र के इस्तेमाल से कई बार सरकारी कार्य प्रणाली की कलई खुल चुकी है। देश में हुए कई छोटे-बड़े घोटालों को सार्वजनिक करने में इसी कानून की भूमिका रही है।
:->कवायद~
पारदर्शिता, जवाबदेही और शुचिता की बात करने वाले हमारे राजनीतिक दलों की अब तक के सर्वश्रेष्ठ कानून के प्रति कारगुजारियां उनकी कलई खोलने के लिए काफी हैं। अपना हित साधने के लिए करीब दो साल पहले जब आरटीआइ कानून को बेदम करने में इनकी दाल नहीं गली तो अब कुतर्कों की एक और फेहरिस्त पेश की है।
- हाल ही में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने हलफनामे में दलील दी है कि राजनीतिक दलों को ‘सार्वजनिक प्राधिकरण’ मानते हुए सूचना के अधिकार (आरटीआइ) के दायरे में नहीं लाया जाना चाहिए। ऐसा होने पर कामकाज प्रभावित होगा। साथ ही राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी भी जानकारियां हासिल करके उसका दुरुपयोग कर सकते हैं।
=>कारगर
- सामान्य सा सवाल है। यदि कोई संस्था या व्यक्ति मनसा, वाचा और कर्मणा नियम-कानून से है तो कोई उसकी जानकारियां हासिल करके क्या नुकसान पहुंचा सकता है? आखिर अगर राजनीतिक दल कोई असंवैधानिक-गैरकानूनी काम नहीं करते तो फिर वे राजनीतिक दलों को आरटीआइ के दायरे में लाए जाने वाले कदम से इतने असहज क्यों हैं? पहले से ही कई संवैधानिक संस्थाएं और राष्ट्र सुरक्षा संबंधी विषय इसके दायरे से बाहर हैं।
- अगर राजनीतिक दलों की गलत तर्ज पर अन्य संस्थाएं भी खुद को इससे बाहर रखे जाने की दलील देने लगें तो इस कानून का मूल मकसद ही खत्म हो जाएगा। ऐसे में देश की आम जनता को मिले अब तक के सबसे बड़े हथियार को कुंद होने से बचाने के लिए हमारे राजनीतिक दलों को ही खुद सामने आना चाहिए और सांच को आंच नहीं की तर्ज पर खुद की निगहबानी के परहेज से बचना चाहिए। ऐसे में राजनीतिक पार्टियों के कामकाज में पारदर्शिता लाने और सूचना अधिकार कानून को कुंद न किए जाने की अपेक्षा आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
=>अमेरिकी व्यवस्था :-
फेडरल इलेक्शन कैंपेन एक्ट 1974 के अंतर्गत एक प्रवर्तन विभाग का गठन किया गया। इसका नाम फेडरल इलेक्शन कमीशन है। यह विभाग सभी राजनीतिक दलों द्वारा अपने उम्मीदवार पर खर्च किए गए धन और प्रतिद्वंद्वी लोगों को हराने के लिए खर्च की गई रकम का पूरा ब्योरा जांच करके जुटाता है और उसे जनता और मीडिया के सामने सार्वजनिक करता है। आदर्श रूप से भारत के चुनाव आयोग को ऐसी ताकत मिलनी चाहिए। अगर ऐसा हो जाए तो राजनीतिक दलों को आरटीआइ के दायरे में लाए जाने की जरूरत ही न पड़ें।
=>कानूनी पारदर्शिता लागू:-
- इन देशों में राजनीतिक दल कानूनी रूप से बाध्य हैं अपनी आय, देनदारियां और संपत्ति की पूरी जानकारी जनता को उपलब्ध कराने के लिए। ऑस्ट्रिया, भूटान, ब्राजील, बुलगारिया, फ्रांस, घाना, ग्रीस, हंगरी, इटली, कजाकिस्तान, केन्या, किर्गिस्तान, नेपाल, पोलैंड, रोमानिया, स्लोवेनिया और तजाकिस्तान, तुर्की, यूक्रेन, उज्बेकिस्तान, स्वीडन
=>45 देश ऐसे हैं जहां दलों को चंदा देना मना है~
चेक गणराज्य, डेनमार्क, जर्मनी, जापान और पुर्तगाल की किसी राजनीतिक दल के चंदे, आय, संपत्तियों, देनदारियों और खर्चों के बारे में अगर किसी को जानकारी चाहिए तो उसे संसद, मंत्रालय या अन्य नियामक निकायों के माध्यम से हासिल करने का प्रावधान है।
=>फिजी की फिजा
कामनवेल्थ ह्युमन राइट इनीशिएटिव की एक रिपोर्ट के अनुसार यहां के पॉलिटिकल पार्टीज (रजिस्ट्रेशन, कंडक्ट, फंडिंग एंड डिस्क्लोजर) डिक्री, 2013 के अनुसार कोई भी व्यक्ति तय शुल्क चुकाकर राजनीतिक दल के ऑफिस द्वारा तैयार कोई भी रिकॉर्ड जांच सकता है, उसकी प्रतियां ले सकता है। व्यक्ति पार्टी का संविधान, सदस्यता सूची, नकद और विभिन्न प्रकार से प्राप्त चंदे, खर्चों का ब्योरा, दल की संपत्तियों और ताजा अडिट की हुई अकाउंट बुक की कॉपी हासिल कर सकता है।