यूनिफॉर्म सिविल कोड पर बने आम राय

- देश में अब तक समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) का मुद्दा एक राजनीतिक मसले की तरह उठता रहा है। इसके उठते ही अल्पसंख्यक समुदाय डिफेंसिव हो जाता है। उसे लगता है कि इसके जरिए उसे कठघरे में खड़ा किया जा रहा है।

- उसका यह डर अकारण नहीं होता। कुछ पार्टियां इस मुद्दे को इस तरह से उठाती हैं जैसे अल्पसंख्यक समुदाय ही इसके रास्ते में रोड़ा बना हुआ हो। पिछले दिनों यूनिफॉर्म सिविल कोड का मुद्दा फिर चर्चा में आया है।

- दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा है कि समान नागरिक संहिता पर उसका क्या स्टैंड है? वह इसे लागू करना चाहती है या नहीं? 
- कोर्ट ने यह सवाल क्रिश्चियन डाइवोर्स एक्ट की धारा 10 ए (1) को चुनौती देने वाली अर्जी पर सुनवाई के दौरान किया। इस पर विधिमंत्री डीवी सदानंद गौड़ा ने बयान दिया कि राष्ट्रीय एकता के लिए समान नागरिक संहिता जरूरी है, लेकिन यह व्यापक विचार-विमर्श के बाद ही लागू की जा सकती है।

=>समान नागरिक संहिता का अर्थ:-
- समान नागरिक संहिता का अर्थ है, भारत के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक (सिविल) कानून।
- ऐसे कानून विश्व के अधिकतर विकसित देशों में लागू हैं, लेकिन भारत में कई पर्सनल लॉ हैं, जो अलग-अलग धर्मों के रीति-रिवाज और परंपरा के आधार पर बने हैं। खास तौर पर ये शादी, तलाक, विरासत और गुजारा भत्ता जैसे मामलों में लागू होते हैं। 
- मसलन, हिंदुओं के लिए तलाक के कानून मुस्लिमों और ईसाइयों पर लागू होने वाले कानूनों से बिल्कुल अलग हैं।

- हमारे संविधान निर्माता भारत को एक आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाना चाहते थे, जिसके लिए कॉमन सिविल कोड जरूरी था। लेकिन उन्हें इस बात का भी अहसास था कि भारत जैसे विविध सांस्कृतिक-धार्मिक धाराओं वाले देश में इसे यकायक लागू करना असंभव है। उन्होंने संविधान में भरसक कोशिश की कि तमाम धर्मों की जड़ परंपराओं को छोड़कर उनमें आधुनिक मूल्यों का समावेश किया जाए। लेकिन अपनी समझ को लोगों पर थोपने के बजाय उन्होंने इसे राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में रखना बेहतर समझा।

- संविधान के अनुच्छेद 44 के मुताबिक सरकार समान नागरिक संहिता लागू कराने का प्रयास करेगी, पर इसे लागू करना उसके लिए बाध्यकारी नहीं है। आजादी के बाद न्यायपालिका या विधायिका के प्रयासों से स्वत: कई चीजें बदलीं।
- विभिन्न धर्मों के लोगों ने एक-दूसरे की अच्छी चीजें अपनाने की कोशिशें की। जैसे हिंदू महिलाओं को हाल में बहुत से अधिकार अलग-अलग कानूनों के जरिए प्राप्त हुए हैं, जिनमें कुछ इस्लाम और ईसाइयत में पहले से मौजूद थे।

- इस प्रक्रिया को तेज करने की जरूरत है। सभी धर्मों के सबसे कमजोर हिस्से को न्याय और दूसरी सहूलियतें दिलाने की कसौटी को ध्यान में रखकर समान नागरिक संहिता का एक खाका बनाने की कोशिश की जानी चाहिए। लेकिन इससे पहले सभी के मन से यह डर मिटाना होगा कि उनकी धार्मिक परपंराओं में अनावश्यक हस्तक्षेप करना इसका मकसद नहीं है।

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