Why in news:
छत्तीसगढ़ के सुकमा में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के 90 सदस्यीय दल पर नक्सलवादियों के हमले और उसमें 25 जवानों की शहादत ने फिर एक बार न सिर्फ वामपंथी अतिवाद के खतरे को रेखांकित किया है, बल्कि उस सीआरपीएफ की तैयारी, उनके साधनों, प्रशिक्षण और रणनीति पर भी प्रश्न चिह्न लगाया है, जो इस संघर्ष में सबसे अधिक योगदान दे रहा है। सुकमा हमले से अप्रैल 2010 में ऐसे ही घात लगाकर किए हमले में सीआरपीएफ के 75 जवानों के शहीद होने की दुर्भाग्यपूर्ण घटना याद आती है, जिसके बाद नक्सली हथियार व विस्फोटक लेकर भाग गए थे।
Problem as it is no solution till now?
जैसाकि अनुमान था इस घटना से हर तरफ रोष और गुस्सा है और नक्सलियों को इसकी भारी कीमत भी चुकानी पड़ेगी। लेकिन, यह तथ्य स्पष्टीकरण से परे हैं कि पांच दशक से चल रहे नक्सल विरोधी अभियान और माओवादी क्षेत्र में बड़ी संख्या में अर्धसैनिक बल और पुलिस की तैनाती के बाद भी इस समस्या को लेकर कोई सुनियोजित रणनीति दिखाई नहीं देती। खेद है कि इन क्षेत्रों में हमारे सुरक्षा बल हावी होते दिखाई नहीं देते। यह समस्या इस तथ्य से और जटिल हो गई है कि नक्सल प्रभावित गलियारा कई राज्यों से होकर गुजरता है और इनसे निपटने की किसी साझी योजना के अभाव में हर राज्य सरकार नक्सलियों से अपनी रणनीति के अनुसार निपटने में लगी है। इसके कारण हमारे सीआरपीएफ और पुलिस बलों को जवानों के रूप में भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। इसके साथ लोगों का धैर्य खत्म होता जा रहा है।
Attacks before?
जहां पिछले साल छत्तीसगढ़ में नक्सली हिंसा में काफी कमी आई थी, जब ऐसी मुठभेड़ों में हमारे बलों के 36 जवान शहीद हुए थे, जबकि 2007 में यह संख्या 182 थी। वैसे 2005 और 2017 के बीच नक्सल हमलों में देशभर में सुरक्षा बलों के 1,910 जवान शहीद हुए, जिनमें 954 तो सिर्फ छत्तीसगढ़ में हमलों के शिकार हुए। इसमें हाल में हुआ नक्सली हमला भी शामिल है।
Is insufficient training responsible for such ambush?
कई दशकों से सीआरपीएफ और पुलिस बलों तथा नक्सलियों के बीच संघर्ष में एक बात प्रखरता से स्पष्ट हुई है कि वह यह कि सीआरपीएफ में सैनिकों की भर्ती की जाती है तथा उन्हें पर्याप्त प्रशिक्षण दिए बगैर वर्दी पहनाकर समस्या पर काबू पाने को कह दिया जाता है। मैंने व्यक्तिगत रूप से यह मुद्दा संसद में उठाया है और इसके तहत सुरक्षा बलों में बारूदी सुरंग विरोधी वाहनों के अभाव का मामला खासतौर पर उठाया है। नक्सली क्षेत्रों में एक के बाद एक होनेे वाली मुठभेड़ों और घात लगाकर किए हमलों में सीआरपीएफ और पुलिस दलों की कमजोरी बार-बार उजागर हुई है। बलों की आवाजाही बख्तरबंद गाड़ियों में करने से घात लगाकर किए हमलों और ग्रेनेड लॉन्चर व आईईडी (इलेक्ट्रॉनिक विस्फोटकों) के हमलों से जान-माल के नुकसान को काफी कम किया जा सकता है। वर्ष 2010 में केंद्र सरकार ने सीआरपीएफ के लिए 350 बारूदी सुरंग विरोधी वाहनों की मंजूरी दी थी लेकिन, मार्च 2017 में भी सीआरपीएफ के पास ऐसे सिर्फ 122 ही वाहन थे। इनमें से भी करीब दर्जनभर वाहन जम्मू-कश्मीर ले जाए गए हैं, जहां पर सीआरपीएफ को 2016 के बाद से नक्सलियों जैसे आईईडी हमलों की आशंका लगने लगी है।
Are forces not fully equipped to contain Naxalism?
नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पुलिस बलों की लड़ने की अपर्याप्त क्षमता माकूल जवाब देने में सुरक्षा बलों की नाकामी का प्रमुख कारण बनी हुई है। फिर नक्सली अथवा माओवादी अभियान चलाने में केंद्र सरकार पर राज्य पुलिस बलों की निर्भरता भी उतना ही अहम कारण है। राज्यों और विभिन्न नक्सली इलाकों के बीच खुफिया जानकारी के आदान-प्रदान के लिए संस्थागत व्यवस्था और क्षेत्रीय तालमेल के अभाव का भी नक्सली लगातार गैर-फायदा उठाते रहे हैं, यह बार-बार होने वाले हमलों से स्पष्ट है।
अविभाजित आंध्र प्रदेश का ग्रेहाउंड्स नामक विशेष बल नक्सलियों के खिलाफ अब तक का सबसे कारगर बल रहा है, जो नक्सली हिंसा का ट्रेंड उलटने में कामयाब रहा था। आंध्र में 2005 के बाद से 429 अति वामपंथी अथवा नक्सली मारे गए हैं और इनके हमलों में सुरक्षा बलों के 36 जवानों की जानें गई हैं। इसी तरह 2014 में बने तेलंगाना में चार नक्सली मारे गए हैं और सुरक्षा बलों में से कोई हताहत नहीं हुआ। वर्ष 2012 में गृह मंत्रालय ने नक्सली और माओवादी हिंसा से ग्रस्त पांच राज्यों में ग्रेहाउंड्स जैसे बल गठिन करने का प्रस्ताव रखा था। जाहिर है कि यह प्रस्ताव अब तक धरातल पर साकार नहीं हुआ है, खासतौर पर छत्तीसगढ़ में। खुफिया जानकारी एकत्र करने में जाहिर खामी के अलावा, इस बात के भी स्पष्ट सबूत हैं कि सीआरपीएफ भी रणनीति और जमीनी व्यूहकौशल में पिछड़ा हुआ है। घात लगाकर होने वाले हमले रोकने के लिए गश्ती दलों के आसपास निगरानी के लिए ड्रोन का इस्तेमाल पर्याप्त नहीं है। सुकमा जैसे हमलों में एक-चौथाई गश्ती दल खो देने की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद सीआरपीएफ नेतृत्व को व्यूहरचना, प्रशिक्षण और हथियार व उपकरणों की स्थिति का पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए। मुंबई में 26 नवंबर 2008 में हुए आतंकी हमले के बाद मैंने गृह मंत्रालय में मौलिक फेरबदल की मांग करते हुए आंतरिक सुरक्षा के काम नए केंद्रीकृत व जवाबदेह आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय को सौंपने का आग्रह किया था। अब इसका समय आ गया है।
Conclusion
हमारे सीआरपीएफ जवानों की सेवा और बलिदान व्यर्थ नहीं जाना चाहिए और सरकार के िलए, खासतौर पर गृह मंत्रालय के लिए यह चेतने का वक्त है। सुकमा हमला नक्सलवाद के खिलाफ 26/11 जैसा पल है। नक्सलियों, माओवादियों के खिलाफ लड़ाई में सिर्फ हमारे वर्दीधारी जवानों का जीवट और परिश्रम न हो बल्कि उन्हें बेहतर व्यूहरचना, साजों-सामान, प्रशिक्षण और दृढ़ संकल्पित रणनीति का भी साथ मिलना चाहिए। इसे संबंधित राज्य और केंद्र सरकार के संसाधनों और नेतृत्व की मिल-जुली शक्ति मिलनी चाहिए।