#दैनिक_भास्कर
Ø अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भारत-चीन पर तोहमत लगाकर जिस तरह पेरिस के जलवायु परिवर्तन समझौते से अपने देश को अलग किया है वह दुनिया में बढ़ते संकीर्ण राष्ट्रवाद के खतरे की एक बानगी है।
विरोध क्यों :
जिस समझौते को तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इस आधार पर अमेरिकी राजनय की बड़ी सफलता बताया था कि उन्होंने इससे भारत-चीन को जोड़ लिया है, उसी आधार पर ट्रम्प ने इसे खारिज कर दिया है।
Ø ट्रम्प ने यह कहकर घोर अमेरिकावाद का परिचय दिया है कि इस समझौते के तहत भारत न सिर्फ अमेरिका से लाखों डॉलर की मदद लेगा बल्कि नए-नए कोयला संयंत्र लगाएगा और कोयले का उत्पादन दोगुना करेगा।
Ø उन्होंने यही आरोप चीन पर भी लगाया है और कहा है कि उसके विपरीत अमेरिका को नुकसान होगा, क्योंकि अमेरिका को न सिर्फ कोयले के संयंत्र लगाने की मनाही होगी बल्कि इन देशों को भारी आर्थिक मदद देनी होगी।
Ø ओबामा ने अमेरिका का बड़प्पन दिखाते हुए उसके खाते में दुनिया और उसकी भावी पीढ़ियों के लिए जो जिम्मेदारी सहर्ष स्वीकार की थी उसे ‘पहले अमेरिका’ के सिद्धांत के तहत खारिज करके ट्रम्प ने यह जता दिया है कि वे अमेरिका को बेहद स्वार्थी देश बनाना चाहते हैं और ऐसी विश्व-व्यवस्था कायम करना चाहते हैं, जो सिर्फ अमीरों के हित में हो।
view of Obama
ओबामा ने इस समझौते के तहत अमेरिका की तरफ से तीन अरब डॉलर देने और एक दशक के भीतर 26 से 28 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन कम करने का वादा किया था, जिसमें से एक अरब डॉलर दिया भी जा चुका है लेकिन, अब ट्रम्प के नए रुख के चलते बाकी राशि नहीं मिलेगी और इस समझौते को मूर्त रूप देने की कमान चीन-भारत के हाथ में जाएगी
समझौते को लागू करने का प्रयास यूरोपीय संघ के देश भी करेंगे, क्योंकि उन्होंने अमेरिका की कड़ी आलोचना की है। यहां बर्टेंड रसेल की कहानी ‘इन्फ्रा रेडियोस्कोप’ दुनिया के लिए नई सीख साबित हो सकती है, जिसमें मंगल ग्रह से होने वाले आक्रमण की काल्पनिक योजना से डरी दुनिया की महाशक्तियां एकजुट हो गई थीं। बाद में जब पता चलता है कि वह योजना झूठी थी तो दुनियावासी फिर फूट का शिकार होते हैं और आपस में लड़कर नष्ट हो जाते हैं। राष्ट्रवाद और विश्ववाद के भीतर आज दुनिया उसी तरह से झूल रही है और ऐसे में जरूरी है कि सच पर आधारित विश्वव्यवस्था का सद्भावपूर्ण आधार तलाशा जाए।