- ताजा आंकड़ों से साफ है कि देश की 121 करोड़ की आबादी में से 83.3 करोड़ लोग गांवों में तथा 37.7 करोड़ लोग शहरों में निवास करते हैं.
इस जनसंख्या में ग्रामीण क्षेत्र की आबादी का प्रतिशत 68.84 रहा, जबकि नगरीय आबादी का प्रतिशत बढ़कर 31.16 हो गया है.
- उल्लेखनीय है कि नगरीय आबादी का हिस्सा पिछले एक दशक में 27.81 फीसद से बढ़कर 31.16 फीसद तक पहुंच गया है, वहीं ग्रामीण आबादी का प्रतिशत 72.19 से घटकर 68.84 फीसद रह गया है. नगरों की बढ़ती आबादी का पूर्वानुमान पिछले दो दशकों में वैश्विकरण की प्रक्रिया की शुरुआत के समय से ही लगाया जा रहा था. लिहाजा गांवों में पिछले एक दशक में जिस अनुपात में आबादी घटी है उसे अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता. लोग शहरीकरण की बढ़ती प्रक्रिया को विकास के पर्याय के रूप में देखते हैं.
- इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले एक दशक में रोजगार के अवसरों की तलाश में गांवों से शहरों की ओर लोगों के पलायन करने की रफ्तार तेज हुई है. यहां इस सचाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि देश के 58.4 फीसद से भी अधिक लोगों की आजीविका का मुख्य साधन आज भी खेती ही है.
- सकल घरेलू उत्पाद में भी कृषि का योगदान पांचवे हिस्से के बराबर है. साथ ही खेती कुल निर्यात का 10 फीसद हिस्सा होने के साथ-साथ अनेक उद्योगों के लिए कच्चा माल भी उपलब्ध कराती है. खेती-किसानी से जुड़े अनेक विरोधाभासी आंकड़े भी साक्षी हैं कि गांवों में खेती अब घाटे का सौदा रह गई है. देश के 40 फीसद किसानों ने तो खेती करना छोड़ ही दिया है.
- देश के विभिन्न हिस्सों में किसान आत्महत्या करने तक को मजबूर हो रहे है. पिछले दिनों फेडरेशन ऑफ इंडियन फार्मर्स आर्गनाईजेशन (फिफो) की रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि विभिन्न प्रकार के भूमि अधिग्रहणों के कारण देश में अब तक 12 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि कम हो चुकी है.हैं.
- यह सच है कि आबादी के लिहाज से भारत आज भी गांवों का ही देश है. गांव की आबादी पिछले दशक में कम जरूर हुई है, परंतु आबादी के ताजा आंकड़ों मे देश के नीति निर्माताओं के लिए एक सबक भी छिपा है.
- इस सच से तो इंकार किया ही नहीं जा सकता कि पिछले दशकों में गांवों में जीवनयापन मुश्किल हुआ है. अधिकाश योजनाओं का केंद्र बिंदु शहर ही रहे हैं. कृषि के मुनाफादेह न रहने से गांवों में रोजगार के वैकल्पिक साधन भी कमजोर पड़े हैं. यही कारण है कि लोग गांवों से पलायन को मजबूर हो रहे हैं.
- 1991 के बाद वैश्विकरण की तीव्रता ने विगत देश दशकों में जिस प्रकार शहरों की चकाचौंध को बढ़ाया है उससे लगता है कि शायद इनका भौतिक विकास ही राष्ट्रीय विकास का आधार बन गया है.
- निश्चित ही शहरों के रूपांतरण, लंबे-लंबे राष्ट्रीय राजमार्ग, एक्सप्रेस-वे और मॉल जैसे भौतिक ढांचे के निर्माण ने लोगों को सुखवादी संस्कृति का अहसास कराया है. दूसरी ओर, देश में शहरीकरण से जुड़े जो नए शोध आ रहे हैं वे सभी भारत के शहरीकरण का भयावह चित्र प्रस्तुत करते हैं.
- राष्ट्रीय विकास की वैश्विक संकल्पना बताती है कि देश साफ तौर पर भारत और इंडिया में विभाजित हो रहा है. ठीक उसी प्रकार देश के नगरीय विकास के नए व स्मार्ट सिटी के मॉडल से शहर भी स्पष्ट रूप में दो भागों में बंटते जा रहे हैं. शहरों का एक भाग आधुनिक भौतिक सुख-सुविधाओं से लैस होता जा रहा है, जबकि दूसरा हिस्सा झुग्गी-झोपड़ियों अथवा मलिन बस्तिओं में बदल रहा है. ऐसे में कुछ लोग नारकीय जीवन जीने को मजबूर हो रहे हैं.
- भारत के शहरीकरण की ओर तेजी से बढ़ते कदमों को देखते हुए ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले दो दशकों में लगभग आधी आबादी शहरों में निवास करेगी. परिणामत: नगरों में शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार से जुड़ीं अनेक समस्याओं का सामना भी हमें उसी अनुपात में करना होगा.
- बारहवी पंचवर्षीय योजना के प्रारूप में भी 2017 तक लगभग एक करोड़ से भी अधिक लोगों को खेती-किसानी से अलग करके उन्हें दूसरे अन्य काम-धंधों की ओर उन्मुख करना परिलक्षित होता है. भविष्य में खेती से जुड़े जो लक्षण दिखायी पड़ रहे हैं उनसे लगता है कि बढ़ती आबादी में लोगों की बुनियादी जरूरत पूरी करने के लिए खेती की उत्पादकता बढ़ाना मजबूरी होगी. इसलिए खेती में हाइब्रिड बीज व तीव्र यंत्रीकरण करने से कृषि कार्य और कृषि मजदूरी करने के अवसर स्वत: ही कम हो जाएंगे. इन हालात में खेतिहर मजदूर व छोटे किसानों का हर की ओर पलायन मजबूरी बन जाएगा.
- इतिहास साक्षी है कि अंग्रेजों ने भारत की सामाजिक व आध्यात्मिक सत्ता को चुनौती देने के लिए ही शहरीकरण की प्रक्रिया को तेज किया था. निश्चय ही उससे सामाजिक संरचना में क्रांतिकारी परिवर्तन भी हुआ. परंतु उनकी इस चतुराई से विकास नगरों तक ही सीमित होकर रह गया. उनकी षड्यंत्रकारी रणनीति के कारण गांवों व शहरों के बीच विषमताओं की खाई और चौड़ी होती गई. सड़कों का निर्माण, यातायात के साधनों की विभिन्नता, विदेशी शिक्षा के विस्तार इत्यादि के प्रभाव ने नगरों की तो कायापलट कर दी, परंतु गांव लगातार पिछड़ते गए.
- यही कारण रहा कि गांव गंदगी और पिछड़ेपन तथा नगर सभ्यता और प्रगतिशीलता के प्रतीक बन गए. गांवों का समाजशास्त्र बताता है कि गांव आत्मनिर्भरता, सामूहिकता, एकता, दुख-दर्द के साझेदार व पारिवारिक संयुक्तता के प्रतीक हैं. दूसरी ओर नगर मात्र व्यक्ति के निजी हित व सुखों के चारों ओर घूमने वाले पत्थरों के मकान हैं, जहां व्यक्ति के सामने उसका विशुद्ध अकेलापन, तकलीफें, पहचान गुम होने के साथ में परिवार, मां-बाप व बच्चों के बीच बढ़ती दूरी उसे उसके विकास का अहसास दिलाकर उसका साथ छोड़ रही हैं.
- अंतत: कहने की आवश्यकता नहीं कि भारत के गांव आज भी एक संभावना हैं. संपूर्ण यूरोप आज भौतिक विकास के उच्च शिखर पर पहुंचने के बाद ग्रामीण संस्कृति में वापस लौटने को तड़प रहा है. हम हैं कि अपना संपूर्ण सुख नगरों में खोजने को लालायित है.
- गांवों से जुड़ी आबादी के ताजा आंकड़ों ने सिद्ध कर दिया है कि भारत के मूल विकास की संकल्पना को खोजने के लिए गांवों की ओर लौटने की जरूरत है. ध्यान रहे कि धार्मिक जनगणना और उस पर विमर्श विखंड़ित राजनीति का परिचायक है. परंतु आबादी में गांव और नगर का अनुपात और उस पर अर्थपूर्ण विमर्श देश के विकास की दिशा तय करता है.
यह हम भारत के लोगों को तय करना है कि विमर्श राजनीति के विखंडन पर करना चाहते हैं या देश के विकास के समाजशास्त्र पर.