सामरिक साझेदारी नीति : विश्लेषण

#Business_standard Editorial

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने रक्षा मंत्रालय की सामरिक साझेदारी नीति को मंजूरी दे दी है। इसके साथ ही उन छह भारतीय कंपनियों के चयन का मार्ग प्रशस्त हो गया है जो विदेशी निर्माता कंपनियों के साथ मिलकर हेलीकॉप्टर, विमान, पनडुब्बी और हथियारबंद वाहन बनाने का काम करेंगी। इस नीति का ब्योरा सार्वजनिक कर उसे रक्षा खरीद नीति 2016 में शामिल किया जाना है।

Ø  मंत्रालय इन साझेदारों के चयन में धीरेंद्र सिंह समिति (2015) और वी के अत्रे कार्यबल (2016) की अधिकांश अनुशंसाओं को मानने का इच्छुक है।

Ø   ये साझेदार विदेशी कंपनी के साथ साझा उद्यम बनाएंगे और चार तय श्रेणियों में रक्षा मंत्रालय के निविदा जारी करने पर हथियार खरीद की प्रक्रिया में हिस्सा लेंगे।

Ø  नौसेना की छह पारंपरिक पनडुब्बी तैयार करने की मांग अब आगे बढ़ेगी और सेना को हथियारबंद वाहन और हेलीकॉप्टर की जरूरत पूरी करने में मदद मिलेगी।

विश्लेषण

Ø  लेकिन एक अनिश्चितता अब भी है। इस नीति में रक्षा निर्माण भारत को स्थानांतरित करने की बात शामिल है या नहीं इस पर भी संदेह है ।

Ø   भारतीय कंपनियों तथा विदेशी साझेदारों के लिए एक अहम समस्या यह है कि भारत में उत्पादन करने वाले संयुक्त उद्यमों के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर 49 फीसदी की सीमा निर्धारित की गई है।

Ø  विदेशी कंपनियों की शिकायत है कि यह सीमा उनको संयुक्त उद्यम में इस्तेमाल होने वाली तकनीक पर पूरा नियंत्रण नहीं देती। ऐसे में देश में उच्च तकनीकयुक्त उपकरण नहीं बन पाएंगे क्योंकि विदेशी कंपनियां उच्च तकनीक वाले घटक, सिस्टम्स आदि की आपूर्ति विदेश से करेंगी।

Ø  भारतीय कंपनियां अलग वजह से दुखी हैं। उनकी शिकायत है कि 51 फीसदी की न्यूनतम हिस्सेदारी से उन पर सारा जोखिम आ गया है जबकि सारे पत्ते तो विदेशी साझेदार के हाथ में होंगे। यानी तकनीकी ज्ञान तो उनके पास होगा।

Ø  चिंता तो यह भी है कि नई सामरिक साझेदारी नीति बहुत संकीर्ण सोच वाली है। इसका लक्ष्य केवल यह नहीं होना चाहिए कि वह सिस्टम्स का एकीकरण करे। यानी विदेशों में बने उपकरणों और हथियारों को भारत में एक सैन्य प्लेटफॉर्म पर असेंबल करे।

क्या होना चाहिए

Ø  इसके बजाय नीति ऐसी होनी चाहिए कि भारत में रक्षा उपकरणों और हथियार के निर्माण का पूरा माहौल तैयार किया जा सके।

Ø   इसमें पहली, दूसरी और तीसरी श्रेणी के आपूर्तिकर्ता, कलपुर्जे और अन्य सामान निर्माता सब शामिल हों।

Ø  इसके अलावा बाद में रखरखाव, मरम्मत, सुधार और उनको उन्नत बनाने की पूरी व्यवस्था भी भारत में होनी चाहिए।

फिलहाल इस नीति में यह सब शामिल नहीं है। न ही इसमें वैश्विक निर्माता कंपनियों की जटिल निर्माण शृंखला को स्थान दिया गया है। कई भारतीय रक्षा कंपनियों के अधिकारी मानते हैं कि भारतीय कंपनियों के बजाय उन विदेशी निर्माता कंपनियों को वरीयता दी जानी चाहिए। इसमें बहुलांश हिस्सेदारी और सहयोगी छोटे कारोबारियों से चर्चा आदि शामिल है। इसमें निर्माण का एक खास हिस्सा भारत में करने की शर्त होनी चाहिए। मंत्रालय यह सुनिश्चित कर सकता है कि संयुक्त उद्यम पर सामरिक नियंत्रण हो। वहां भी जहां बहुलांश हिस्सेदारी विदेशी साझेदार के पास हो।  इसमें केवल भारतीय कर्मचारियों का होना, इसका भारतीय धरती पर होना और भारतीय अधिकारियों द्वारा इसका संचालन होना मात्र यह तय कर सकता है। इस नीति को वैश्विक रक्षा उद्योग की हकीकत से वाकिफ होना चाहिए।

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