न्यूनतम वेतन प्रस्ताव के बड़े हैं जोखिम

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Minimum wages idea

18,000 रुपये को राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन घोषित करने का प्रस्ताव औपचारिक क्षेत्र के रोजगार को नुकसान पहुंचाएगा क्योंकि वेतन और जीवन स्तर की लागत बेमेल हो जाएगी। यह निर्णय इसलिए भी घातक है क्योंकि अधिकांश उद्यमियों को लगता था कि शायद पिछली सरकार की सलाहकार परिषद की अदूरदर्शिता से सबक लिया गया हो। उसकी अल्पकालिक नीतियों ने हमें अर्थव्यवस्था में मंदी विरासत में दी। इस सरकार ने नोटबंदी, दिवालिया कानून और जीएसटी के रूप में कई नीतिगत रूप से जोखिम भरे कदमों का समझदारी भरा उपयोग किया है। परंतु राष्ट्रीय न्यूनतम आय को लेकर कोई दीर्घकालिक समझ सामने नहीं रही है। यह एक अनावश्यक और बांटने वाला फैसला है। श्रम मंत्रालय ने औपचारिक रोजगार सृजन की कोई मदद नहीं की है और यह प्रस्ताव उसे छिपाने की कोशिश है।

  • यह कदम सरकार के सबसे प्रभावी नवाचारों में से एक प्रतिस्पर्धी संघवाद को नुकसान पहुंचा सकता है। देश में पूंजी बाजार नामक चीज है लेकिन श्रम बाजार पूरी तरह अनुपस्थित है। यही वजह है कि व्यापक निर्माण के मामले में 29 राज्यों के मुख्यमंत्री एक प्रधानमंत्री से अधिक मायने रखते हैं।
  • उत्तर प्रदेश श्रम निर्यात करने वाला बाजार है जहां से हर साल हजारों श्रमिक दूसरे प्रदेशों को जाते हैं। वह केरल जैसे बाजार से एकदम अलग है जहां दूसरी जगहों से श्रमिक आते हैं। वहां 9.5 फीसदी श्रमिक बिहार से आते हैं। केंद्र सरकार ने पहले ही न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948 की धारा 2 के अधीन 45 उद्योगों का न्यूनतम वेतन निर्धारित कर दिया है। सांकेतिक राष्ट्रीय दर की बात करें तो फिलहाल राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन 160 रुपये है और राज्यों पर बाध्यकारी नहीं है। अगर प्रस्तावित दर तय होती है तो राज्य सरकारों का 1,679 अन्य उद्योगों का वेतन तय करने का अधिकार ही समाप्त हो जाएगा। आखिर मुख्यमंत्रियों के अधिकार क्यों छीने जाएं।

Labour reform world over

श्रम सुधार पूरी दुनिया में विवादित है। इसके चलते इटली के युवा प्रधानमंत्री को अपना जन समर्थन गंवाना पड़ा। फ्रांस के समाजवादी प्रधानमंत्री दोबारा निर्वाचन के लिए प्रस्तुत नहीं हुए और जर्मनी की लोकप्रिय चांसलर एंगेला मर्केल के अलोकप्रिय प्रतिद्वंद्वी की लोकप्रियता बढ़ गई है क्योंकि उसने 2001 के श्रम सुधार पलटने का वादा किया है।

  • श्रम कानून अक्सर युवाओं की कीमत पर पुराने लोगों का संरक्षण करते हैं। श्रम संगठनों की भूमिका की बात करें तो उन्होंने रोजगार संरक्षण को ही रोजगार निर्माण मानने की भूमिका अपना ली है।
  • विभिन्न देश अक्सर जब विकल्पहीन हो जाते हैं तो इन सुधारों की दिशा में जाते हैं। जर्मनी में 2001 में हाट्र्ज आयोग के सुधार अपनाए गए क्योंकि उस वक्त देश की हालत खस्ता थी। सन 1990 के दशक में वहां मेहनताने का तेजी से विकेंद्रीकरण किया गया था क्योंकि बचाव का वही एक रास्ता नजर रहा था। जापान दो दशक तक बेहाल रहा और वहां श्रम शक्ति में महिलाओं की कम भागीदारी ने श्रम सुधारों की राह सुनिश्चित की और अब फ्रांस के नए प्रधानमंत्री मैक्रों श्रम सुधारों की मांग के बावजूद चुनाव जीत गए क्योंकि वहां के लोगों को समझ में गया है कि रोजगार के मामले में हालात आपातकालीन हो चुके हैं। हमारे देश में भी श्रम सुधारों की आवश्यकता काफी पहले से है।
  • राजनीतिक नजरिये से देखें तो पांच वर्षीय नीति सही होगी क्योंकि आजादी की 75वीं वर्षगांठ आजादी और स्वतंत्रता के बीच के अंतर को रेखांकित करने के लिए बेहतर विकल्प होगी। आजादी विकल्पों के सााथ आती है और विकल्प तैयार करने का सबसे बेहतर मार्ग नौकरियां हैं। जीएसटी, नोटबंदी, कारोबारी सुगमता जैसे कदमों से देश की व्यवस्था को औपचारिक ही तो किया जा रहा है। बीते तीन साल में हमने भविष्य निधि में एक करोड़ और ईएसआई में 1.3 करोड़ अदाकर्ता जोड़े हैं। इस प्रक्रिया को खत्म करने की कोशिश क्यों की जा रही है?

बीते तीन सालों में श्रम मंत्रालय ने कोई खास नीति, क्षमता या कल्पनाशीलता नहीं दिखाई है। उसका कमजोर प्रदर्शन अब उसे मजबूर कर रहा है लेकिन उसे ईपीएफओ के लिए प्रतिस्पर्धा तैयार करनी चाहिए। यह दुनिया का सबसे महंगा सरकारी प्रतिभूति म्युचुअल फंड चलाकर नियोक्ताओं को लूटता है। इस योजना में अगर एक चालू खाता होगा तो चार सुसुप्त होंगे। ईएसआई देश का सबसे खराब स्वास्थ्य बीमा है। जहां दावों का अनुपात 45 फीसदी है और उसमें कर्मचारियों के 30,000 करोड़ रुपये जमा हैं। सरकार को संस्थानों के लिए यूनिवर्सल एंटरप्राइज नंबर की ओर आगे बढऩा चाहिए बजाय कि एकीकृत प्रतिष्ठïान संख्या के। उसे सभी रिटर्न, चालान, रजिस्टर, लाइसेंस आदि को ऑनलाइन करना चाहिए और पूरी तरह कागजी कार्रवाई से मुक्त होना चाहिए।

Some other argument against Minimum wages act

राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन कानून इसलिए भी ठीक नहीं क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 252 (2) के उपयोग को निष्प्रभावी करता है। इस विधान के तहत सात राज्यों को यह अधिकार है कि वे केंद्रीय श्रम कानूनों में संशोधन कर सकें। अगर केंद्र सरकार तय करने लगेगी कि मुंबई, इटावा, कानपुर, किश्तवाड़ और मैसूर में समान वेतन मिलेगा तो राज्य रोजगारोन्मुखी आदतें कैसे विकसित कर पाएंगे? इस आलेख के आरंभ में जिस बच्चे का जिक्र था उसने कहा था कि मुंबई में उसे ग्वालियर की तुलना में चार गुना वेतन चाहिए क्योंकि मुंबई जाकर 10,000 रुपये कमाने वाले लोग वापस लौट आए। इस पैसे में वहां खाना, रहना और कार्यालय जाना नहीं हो पाता। न्यूनतम वेतन को धीरे-धीरे बढ़ाने का एकमात्र तरीका है गैर कृषि, औपचारिक रोजगार में इजाफा। चीन ने बीते चार सालों में हर तिमाही के बाद न्यूनतम वेतन बढ़ाया है। ऐसा तब हुआ जबकि उत्पादकता लगातार बढ़ती गई। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि गैर कृषि रोजगार की ओर पलायन लगातार बढ़ता गया। सन 1978 के बाद से 64 करोड़ लोग इस दिशा में गए हैं।

A concluding mark

न्यूनतम वेतन में इजाफा करना दुनिया भर के राजनेताओं को पसंद रहा है क्योंकि यह मतदाताओं को काफी पसंद आता है। यह कर बढ़ाने का सस्ता विकल्प है, इसकी कोई लागत नजर नहीं आती है और यह गरीबों के लिए मददगार होता है। परंतु भारत जैसे कम औपचारिक रोजगार वाले क्षेत्र के लिए यह सही नहीं है। साथ ही यह संघवाद को प्रतिस्पर्धी बनाने की भावना के प्रतिकूल है। परंतु इसका सबसे बुरा असर हमारे युवाओं पर पड़ेगा। उच्च वेतन के बजाय उनको औपचारिक तौर पर मिलने वाला वेतन ही शून्य हो जाएगा। इस प्रक्रिया को रोका जाना चाहिए

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