- स्वस्थ व सफल शिक्षा व्यवस्था के लिए मजबूत प्राथमिक शिक्षा रूपी नीव आवश्यक है। वर्तमान परिदृश्य में प्राथमिक शिक्षा मुख्य रूप से दो श्रेणियों में विभाजित है–राज्य सरकार संचालित विद्यालय प्रणाली और निजी विद्यालय प्रणाली।
- अधिकांश सरकारी विद्यालय अनेक खामियों, जैसे भवन व अन्य आवश्यक सुविधाओं का अभाव, शिक्षकों व अन्य कर्मचारियों की कमी, शिक्षकों के विविध सरकारी कार्यों में व्यस्त रहने के कारण शिक्षण में उदासीनता आदि से ग्रस्त रहे हैं। निजी विद्यालयों ने काफी हद तक इन्हें दूर कर समाज के समक्ष बेहतर विकल्प प्रस्तुत किया है।
- निजी विद्यालयों ने धनी व मध्य वर्ग के अधिक से अधिक छात्रों को आकर्षित करने के लिए नीतियां विकसित की हैं। सरकारी विद्यालयों में जहां 6 वर्ष की आयु में कक्षा-1 में प्रवेश मिलता है, इन विद्यालयों ने 3 वर्ष की आयु में नर्सरी में प्रवेश की परम्परा डाली। छात्र 3 वर्षों में प्रारंभिक कक्षाओं में अध्ययन कर कक्षा-1 में पहुंच जाते हैं। अधिकांश विद्यालयों में शिक्षा का अंग्रेजी माध्यम प्रचलित है। प्रायः अभिभावक अंग्रेजी-माध्यम की शिक्षा को लाभदायक समझकर उसे अधिक महत्व देते हैं।
- साथ ही विद्यालयों ने शुल्क के रूप में अधिक धन बटोरने के लिए कक्षा 2 से ही कंप्यूटर शिक्षा प्रदान करने की परम्परा डाल दी। आज महंगी व खर्चीली शिक्षा, छात्रों व अभिभावकों के लिए सामाजिक स्तर का प्रतीक बन गयी है। कामकाजी अभिभावकों के लिए छोटी आयु में ही बच्चों को नियमित रूप से विद्यालय भेजना उनके लिए अच्छा विकल्प है। इन सभी कारणों से समाज का उच्च व मध्य वर्ग निजी विद्यालयों की ओर आकर्षित हो गया।
- दूसरी ओर, सरकारी विद्यालयों की दशा निरन्तर बिगड़ रही है। समुचित भवन व आवश्यक सुविधाओं का अभाव निश्चय ही एक कारण रहा है। शिक्षकों व अन्य कर्मचारियों की कमी और शिक्षकों का विविध सरकारी कार्यों में व्यस्त रहना भी एक बड़ा मुद्दा है।
- मिड डे-मील की व्यवस्था भी शिक्षकों की एक बड़ी जिम्मेदारी है। शिक्षकों व कर्मचारियों की लापरवाही व अनुशासनहीनता एक सामान्य प्रवृत्ति है। ये सभी मुद्दे सरकारी विद्यालयों में प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट के लिए उत्तरदायी हैं।
- वास्तव में सरकारी विद्यालयों को केवल धन आवंटन और ढांचागत सुविधाएं उपलब्ध कराना ही पर्याप्त नहीं होगा। प्राथमिक शिक्षा में सुधार के लिए संपूर्ण व्यवस्था की खामियों का पूर्णरूपेण निरीक्षण कर उसमें आमूलचूल सुधार व नियमन की आवश्यकता है। सरकारी विद्यालयों में भवन व आवश्यक सुविधाएं होनी चाहिए। पर्याप्त संख्या में शिक्षक व अन्य कर्मचारी भी होने चाहिए।
प्राथमिक शिक्षा में एकरूपता न होने से सस्ती व महंगी, ग्रामीण व शहरी, या निजी विद्यालय-प्रदत्त व सरकारी विद्यालय-प्रदत्त शिक्षा के बीच खाई बढ़ती जा रही है और ग्रामीण भारत पिछड़ता जा रहा है।
- विशेषकर विद्यालय में प्रवेश योग्य न्यूनतम आयु, शैक्षिक पाठ्यक्रम और शिक्षा का माध्यम आदि में एकरूपता होनी अत्यंत आवश्यक है। निजी विद्यालयों में कम आयु में प्रारंभिक कक्षाओं में प्रवेश प्रक्रिया समाप्त होनी चाहिए। शैक्षिक पाठ्यक्रम में समानता होनी चाहिए। भाषा के पाठ्यक्रम में विसंगतियां दूर करना आवश्यक है। राज्य भाषा व हिन्दी का अध्यापन क्रमशः कक्षा-1 व कक्षा-3 से प्रारम्भ होना उपयुक्त है। शुरू में अध्ययन-भार कम ही रहना चाहिए। शिक्षा का अंग्रेजी माध्यम अधिकांश छात्रों के लिए अध्ययन में बाधक प्रतीत होता है, इसलिए शिक्षा का माध्यम राज्य-भाषा होना चाहिए।
- पाठ्यक्रम ऐसा हो कि ट्यूशन की आवश्यकता न पड़े। प्राथमिक शिक्षा में कंप्यूटर शिक्षा महत्वपूर्ण प्रतीत नहीं होती और न ही पूरे देश में एक समान रूप से लागू की जा सकती है। इसलिए यह विषय हटाया जा सकता है।
- बचपन अमूल्य है और जीवन में कुछ प्रारम्भिक वर्षों के लिए ही प्राप्त होता है, इसलिए बस्ते का भार कम रखकर बच्चों को बचपन का आनंद लेने व सामाजिक विकास करने का पर्याप्त अवसर देना चाहिए। सरकारी विद्यालयों में सुधार व प्राथमिक शिक्षा का नियमन शिक्षा प्रणाली को मजबूत बनाने के लिए दो-आयामी रणनीति होनी चाहिए।
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय का हाल का निर्णय प्राथमिक शिक्षा प्रणाली में सुधारात्मक कार्रवाई के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण प्रतीत होता है। न्यायालय ने आदेश द्वारा प्राथमिक शिक्षा के प्रति सरकारी तंत्र को उत्तरदायित्व का स्मरण कराया है और स्वस्थ शिक्षा व्यवस्था विकसित करने का मार्ग भी सुझाया है।
- अतः समुचित राष्ट्रीय प्राथमिक शिक्षा नीति विकसित कर पूरे देश में समान रूप से लागू की जानी चाहिए। आखिर, यह लगभग 15% जनसंख्या (6-14 वर्ष आयु वर्ग) के करियर का विषय है। राष्ट्रहित में शिक्षा प्रणाली में फेरबदल कर समानता लाना एक बड़ी चुनौती है।