सिनेमाघरों में राष्ट्रगान

Why in news:

  • सर्वोच्च न्यायालय ने देशभर के सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान अनिवार्य कर दिया है
  • । शीर्ष अदालत ने कहा है कि इस दौरान सिनेमा के परदे पर राष्ट्रध्वज मौजूद रहना चाहिए। मकसद देश के हर नागरिक में देशभक्ति की भावना जगाना है।
  • साथ ही परदे पर राष्ट्रध्वज की तस्वीर भी दिखाई जानी चाहिए। जिस वक्त राष्ट्रगीत बज रहा हो, वहां उपस्थित लोगों का उसके सम्मान में खड़े रहना जरूरी है।
  • इसके अलावा राष्ट्रगान का किसी भी रूप में व्यावसायिक इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। इसकी धुन को बदल कर गाने या फिर इसे नाटकीय प्रयोजन के लिए उपयोग नहीं होना चाहिए। 

Argument of court

कुछ समय पहले जब सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य किए जाने को लेकर मांग उठी तो इस पर विवाद खड़े हो गए। कुछ लोगों का कहना था कि इस तरह राष्ट्रगान का अपमान होगा। कुछ लोगों ने इसे मान्यता के अनुकूल नहीं समझा। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि:

  •  अब वक्त आ गया है कि देश के नागरिकों को समझना होगा कि यह उनका देश है।
  • उन्हें राष्ट्रगान का सम्मान करना होगा, क्योंकि यह संवैधानिक देशभक्ति से जुड़ा मामला है।
  • लोगों को महसूस होना चाहिए कि वे अपने देश में हैं और यह हमारी मातृभूमि है। विदेशों में तो आप उनके हर प्रावधान का पालन करते हैं, मगर अपने देश में हर प्रावधान से दूर भागते हैं।’
  • अदालत ने माना कि यह हर नागरिक का फर्ज है कि जब और जहां राष्ट्रगान गाया या प्रदर्शित किया जा रहा हो, वह उसके सम्मान में खड़ा हो जाए।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा भी है कि देश है तभी लोग स्वतंत्रता का लाभ ले पाते हैं। इसलिए राष्ट्रगान के प्रति सम्मान प्रकट करने में उन्हें गुरेज क्यों होना चाहिए। दूसरे देशों में राष्ट्रगान को लेकर वहां के नागरिकों में ऐसा लापरवाही भरा रवैया नहीं देखा जाता, जैसा हमारे यहां होता है। 

Some view in opposition to SC View:

शीर्ष अदालत ने कहा, ‘आजकल लोगों को पता नहीं कि राष्ट्रगान कैसे गाया जाता है और लोगों को यह सिखाना होगा.’इससे दो सवाल उठते हैं.

  • पहला सवाल न्यायपालिका के अपने दायरे से बाहर जाने का है : न्यायपालिका, जिसमें सुप्रीम कोर्ट भी शामिल है, का काम कानूनों की व्याख्या करना है, उन्हें बनाना नहीं. लोकतंत्र शक्तियों के इस बंटवारे पर खड़ा है. लेकिन न्यायपालिका पर अगर अपने दायरे से बाहर जाकर काम करने के आरोप बहुत आम हो गए हैं तो इसका कारण यही है कि न्यायपालिका अक्सर कार्यपालिका के अधिकारों में अतिक्रमण करने लगी है.
  • दूसरा नागरिकों से किसी बच्चे की तरह बर्ताव करने का: अगर फिल्म से पहले सबको राष्ट्रगान गाने का आदेश हो गया है तो कल इसी तर्क पर हर क्रिकेट मैच या हर फ्लाइट के जमीन पर उतरने से पहले यह करने की मांग होने लगेगी. यह मूर्खतापूर्ण नहीं बल्कि गंभीर बात है. जोर-जबर्दस्ती का राष्ट्रवाद पहचान और व्यवहार के धरातल को अंतहीन रूप से समतल करने की मांग करता है. इस तरह के राष्ट्रवाद को लोकतंत्र की विविधता नहीं भाती. राष्ट्रवाद का मतलब सिर्फ गुस्सा, दंड या तानाशाही नहीं बल्कि सुंदरता, श्रेष्ठता और सबका ख्याल भी होना चाहिए. अच्छी बात के लिए जोर-जबर्दस्ती करने की जरूरत नहीं होती. जबर्दस्ती थोपा गया कोई गीत उतना मीठा नहीं लग सकता जितना वह जिसे आजादी के साथ गाया गया हो. जब लोगों को राष्ट्रगान के प्रति सम्मान दिखाने के लिए मजबूर किया जाता है तो उनकी वास्तविक भावनाएं इसके बिल्कुल उलट हो सकती हैं.

Historical background:

सिनेमाघरों में राष्ट्रगान की परंपरा बहुत पुरानी है। साठ और सत्तर के दशक तक यह परंपरा बहुत समृद्ध थी। सिनेमाघरों मेंफिल्म खत्म होने के तुरंत बाद राष्ट्रगान होता था। धीरे-धीरे इसमें क्षरण आया। सिनेमा खत्म होते ही निकलने की जल्दबाजी में कई बार लोग ठहरकर खड़े नहीं होते थे या फिर भीड़ छंटने के इंतजार में बैठे रहते थे। इस तरह राष्ट्रगान का अपमान होता था। धीरे-धीरे देशभक्ति का यह अनुष्ठान पहले कमजोर पड़ा, फिर न जाने कब बंद हो गया। कुछ उत्साही लोगों की मांग पर महाराष्ट्र सरकार ने भी साल 2002 में राज्य के तमाम सिनेमाघरों में शो शुरू होने से पहले राष्ट्रगान का प्रदर्शन अनिवार्य कर दिया था।

कुछ एहतियात बरतने की जरुरत

  • कुछ एहतियात  जिन पर ध्यान न देने के कारण एक परंपरा कई दशक पहले खत्म हो गई थी। हमें उस वक्त इस परंपरा के खत्म होने की वजहें भी तलाशनी होंगी।
  • सोचना होगा कि राष्ट्रगान का एक नियम है, एक संस्कार है-पूरे देश के सिनेमाघरों में इसे कैसे सुनिश्चित किया जाएगा, क्योंकि यह वह देश है, जहां लोग ट्रेन पकड़ने से लेकर सिनेमा का शो देखने तक भागते-दौड़ते ही दिखाई देते हैं।
  • यह कैसे सुनिश्चित होगा कि जिस वक्त परदे पर राष्ट्रगान चल रहा होगा, तब सारे लोग अपनी-अपनी सीट पर पहुंच चुके होंगे।
  • सिनेमा तो इत्मीनान की चीज है, लेकिन सोचना होगा कि यह इत्मीनान राष्ट्रगान को कितना सम्मान दे पाएगा? यह भी सोचना होगा कि राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रप्रेम के चक्कर में हम कुछ ऐसा न कर बैठें कि फिर से साठ और सत्तर के दशक वाले हालात में वापस पहुंच जाएं।

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