कॉप-25जलवायु सम्मेलन
क्या क्योटो प्रोटोकाल खत्म होने के साथ ही कार्बन क्रेडिट की खरीद-फरोख्त का बाजार बंद हो जाएगा या फिर मैड्रिड जलवायु वार्ता में इसे आगे जारी रखने या फिर कोई नया तंत्र स्थापित करने पर सहमति बनेगी। यह प्रश्न भारत समेत कई देश उठा रहे हैं।
नतीजा यह है कि भारत की दर्जनों कंपनियों समेत विश्व की सैकड़ों कंपनियों के पास बड़ी मात्रा में अरबों की कीमत के करोड़ों कार्बन क्रेडिट पड़े हैं जो दिसंबर 2020 के बाद बेकार हो जाएंगे। विशेषज्ञों का कहना है कि क्योटो प्रोटोकाल के दूसरे चरण 2013-2020 के दौरान क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज्म (सीडीएम) को प्रभावी तरीके से लागू नहीं किया गया। कारण कई हैं लेकिन बड़ा कारण यह है कि विकसित देशों ने अपनी भूमिका नहीं निभाई। वे कार्बन क्रेडिट की खरीद से बचते रहे। उन्होंने गरीब और विकासशील देशों को अपनाने के लिए हरित तकनीकें नहीं दी, न ही अपेक्षित आर्थिक सहायता दी। नतीजा यह हुआ कि इस अवधि में सीडीएम मार्केट भरभराकर गिर गया। आज भी यह लुढ़का पड़ा है।
कार्बन ट्रेडिंग को लेकर धनी देशों की राय इस पर जुदा है, वे कहते हैं कि कार्बन ट्रेडिंग ठीक नहीं है क्योंकि बेचने वाला भी लाभ कमा रहा है और खरीदने वाला भी। ऐसा नहीं होना चाहिए। इसका लाभ एक ही पक्ष ले।
कौन होता है खरीददार दो तरह के खरीददार होते हैं। एक ज्यादा उत्सर्जन करने वाली कंपनियां। वे इसे खरीद कर अपने उत्सर्जनों की गणना में कमी दिखाती हैं। दूसरे, स्वैच्छिक खरीदार होते हैं। जैसे विकसित देशों की यह जिम्मेदारी है कि वे कार्बन क्रेडिट खरीदकर अन्य देशों की मदद करें। जैसे यूरोपीय संसद ऐसे क्रेडिट की खरीद करती है।
ऐसे होती हैकार्बन ट्रेडिंग यदि कोई सौर बिजलीघर लगाता है तो उससे जितने स्वच्छ ऊर्जा पैदा होती है, उससे कितना कार्बन उत्सर्जन कम हुआ, इसके आधार पर उसे कार्बन क्रेडिट दिए जाते हैं। दिल्ली मेट्रो, इलेक्ट्रिक वाहन बनाने वाली कंपनियों आदि ने कार्बन क्रेडिट अर्जित किए हैं। कोई भी संस्था जो कार्बन उत्सर्जन रोके वह कार्बन क्रेडिट हासिल कर सकती है।
मैड्रिड जलवायु वार्ता के सामने खड़ी दोहरी चुनौती
मैड्रिड में शुरू हो चुके जलवायु परिवर्तन सम्मेलन का आखिरी सप्ताह बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि जलवायु खतरों को लेकर नए आकलन ज्यादा चिंताजनक हैं। तापमान में वृद्धि को लेकर नए आकलनों में कहा गया है कि खतरा कहीं ज्यादा बड़ा और करीब है, जबकि दुनिया में जो प्रयास हो रहे हैं, वे खतरे के सही आकलन को नहीं दर्शाते। कांफ्रेन्स ऑफ पार्टीज की इस 25वीं बैठक में, जहां एक तरफ पेरिस समझौते के प्रावधानों का पूरी तरह से क्रियान्वयन अगले साल से सुनिश्चित किया जाना है, वहीं दूसरी तरफ सभी राष्ट्रों को यह भी विचार करना है कि क्या पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए मौजूदा घोषणाएं काफी हैं या फिर देशों को नए सिरे से अपने उत्सर्जन के लक्ष्यों को निर्धारित करना होगा। पेरिस समझौते के तहत दुनिया के तमाम देशों ने अपने कार्बन उर्त्सजन में कमी लाने के लिए जो स्वैच्छिक घोषणाएं की थीं, उनके नतीजों को लेकर पिछले सभी आकलन अब गलत साबित होने लगे हैं।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की हालिया रिपोर्ट यह कहती है कि पेरिस समझौते के तहत किए जा रहे उपायों से लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकेगा। इससे सदी के अंत तक तापमान बढ़ोतरी 3.2 डिग्री तक पहुंच जाएगी, जबकि पेरिस समझौते के तहत इसे दो डिग्री से नीचे करीब डेढ़ डिग्री तक सीमित रखने का लक्ष्य रखा गया है। यूएनईपी का आकलन कहता है कि पेरिस समझौते के तहत दुनिया ने उत्सर्जन के जो लक्ष्य तय किए हैं, उन्हें पांच गुना करना होगा, तभी कुछ बात बनेगी।
मैड्रिड में मंत्री-स्तरीय वार्ता में जिन तीन अहम मुद्दों पर चर्चा होगी, उनमें पेरिस समझौते के क्रियान्वयन के अलावा राष्ट्रों द्वारा पूर्व में घोषित किए गए स्वैच्छिक उत्सर्जन कटौती के लक्ष्यों में बढ़ोतरी तथा गरीब और विकासशील देशों को आर्थिक मदद का मुद्दा प्रमुख है। गरीब और विकासशील देशों के लिए पहले मुद्दे से ही तीसरा मुद्दा जुड़ा हुआ है। पेरिस समझौते का जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन होगा, तो गरीब देशों के संसाधनों के संकट का भी सामना करना पडे़गा। पेरिस समझौते समेत तमाम समझौतों में इस पर सहमति बनी है कि धनी देश अपनी जिम्मेदारी निभाएंगे और वैश्विक हरित कोष में हर साल सौ अरब डॉलर की राशि प्रदान करेंगे, ताकि गरीब व विकासशील देशों को खतरे से निपटने के लिए मदद मिल सके। पर यह राशि आधी भी जमा नहीं हो पा रही है। ऐसे में, भारत समेत तमाम विकासशील देश यह सवाल उठाएंगे कि अगले साल से हर हालत में इस कोष में सौ अरब डॉलर की राशि सुनिश्चित की जाए। विकासशील देश हरित तकनीक की उपलब्धता तय करने की अपनी मांग भी दोहरा सकते हैं। हालांकि विकसित देश साफ कर चुके हैं कि ऐसी तकनीक निजी क्षेत्र के पास और उनके नियंत्रण से बाहर हैं, जबकि विकासशील देशों का मानना है कि संयुक्त राष्ट्र उनकी उपलब्धता को लेकर एक तंत्र स्थापित कर सकता है।
भारत ने पहले भी स्वेच्छा से कार्बन उत्सर्जन की तीव्रता में 33 फीसदी की कमी का लक्ष्य घोषित किया था। हाल में भारत ने सौर ऊर्जा से बिजली उत्पादन का लक्ष्य 175 गीगावाट से बढ़ाकर 450 गीगावाट कर दिया है। इसी प्रकार उज्ज्वला योजना का दायरा बढ़ाया है। इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए नीति जारी की है। भारत पहला देश है, जिसने राष्ट्रीय कूलिंग एक्शन प्लान जारी किया है। सम्मेलन में भारत अपने स्वैच्छिक उत्सर्जन लक्ष्य में वृद्धि का श्रेय ले सकता है।
मैड्रिड सम्मेलन यानी कॉप-25 पर इस बात का भी दबाव है कि अब जलवायु खतरों से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए एक वैश्विक व्यवस्था विकसित करने पर निर्णय ले लिया जाना चाहिए। बाढ़, सूखा, तूफान, गरमी आदि से जो तबाही हो रही है, उससे हुई क्षति की भरपाई नहीं हो पाती। संबंधित देशों की सरकारें थोड़ी-बहुत भरपाई करती हैं, लेकिन यह संकट चूंकि स्थाई किस्म का हो चुका है, इसलिए यह सोच उठी है कि इसकी क्षतिपूर्ति के लिए एक स्थाई तंत्र बनना चाहिए। यह तंत्र संयुक्त राष्ट्र द्वारा विकसित किया जाए और सभी राष्ट्र उसका क्रियान्वयन सुनिश्चित कर सकें।